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शुक्रवार, 29 मई 2015

1925 के सपने को जी रहा है संघ

 संघ  नहीं चाहता कि वह अब कभी इस सुनहरे सपने से जागे, जब  उसके हाथ में भारत है यानी सत्ता, संघ को अब देश में अपनी सोच स्थापित करने की प्रशानिक शक्ति मिल गई। जहाँ मोदी सरकार मौजूद है जिसके बातों में विकास है और परदे के पीछे संघ का एजेंडा, अब देश में, विदेशी पूँजी को लेकर संघ जो ईष्टइंडिया का उदाहरण देते थे सब मंजूर है। यानि अब देश में हिंदुत्व का विस्तार हो रहा है तो जिस बात का विरोध संघ वाजपेयी के दौर तक में करती रही वह खामोश है। लेकिन जिस तरह राहुल गांधी ने संघ की नब्ज पर वार किया तो वह उछल पड़ी, राममाधव भी इंदिरा गांधी तक को निशाना बनाने से नहीं चूके। क्योंकि संघ नही चाहता कि उसका अतीत लोगों तक पहुंचे, और इस बात का डर संघ को हमेशा रहता है कि लोग कहीं उनके राष्टवाद को न समझ जाएं। एक दौर में कैसे आजादी के आंदोलनों का विरोध संघ ने किया, कैसे अंग्रेजों की मुखबिरी करते रहे। और वे किस तरह फासीवाद के समर्थक है जो हिटलर को आदर्श मानते हैं। और साथ में यह भी कि आखिर क्यों 1925 में बना आरएसएस 1947 तक कहाँ गायब रहा। खैर गांधी की हत्या को लेकर तो संघ ने बहुत कोशिश कि गोडसे को देश भक्त दिखाने की और गांधी को देशद्रोही ठहराने की भले मोदी आज विदेशियों के लिए गांधी का गुणगान करते हैं क्योंकि गांधी के व्यक्तित्व को पूरी दुनिया जानती है। एक वक़्त नार्थ-ईस्ट में स्वयंसेवक मारा जा रहा था और गृहमंत्रालय संभाले लालकृष्ण आडवाणी बेबस दिखायी दे रहे थे । लेकिन मोदी सरकार में संघ बेबस नहीं बल्कि खुश है कि वह भी तो आवारा पूंजी की तर्ज पर कुलांचे मार सकता है, यानी हिन्दू आतंकवाद का कानूनी भय नहीं, हर मुद्दे पर सरकार साथ है, क्योंकि एक वक़्त वह था जब संघ के कारनामो पर सरकार उस पर प्रतिबन्ध लगा देती थी।
रमेश ओझा का संघ को लेकर पूरा लेख इस लिंक पर पढ़ें 
http://www.hindi.mkgandhi.org/g_hatya.htm
 सावरकर को जानें-समझें
ये लोग जिसको 'क्रान्तिवीर' के विशेषण से नवाजते हैं, वह विनायक दामोदर सावरकर लन्दन में रहकर 'अभिनव भारत' पत्रिका निकालते थे। भाषण तथा लेख की प्रभावी शैली होनेके के कारण कुछ युवक उनकी तरफ आकर्षित हुए थे। उनके अनुयायियों ने भूमिगत रहकर तोडफोड की कुछ कार्रवाइया! की थी, परन्तु अंग्रेजों के खिलाफ व्यापक वोंह वे नहीं कर सके थे। अन्ततः परिस्थिति ऐसी बनी कि, 'वी.डी. सावरकर खुद कोई जोखिम नहीं उठाते!' ऐसा असन्तोष उनके अनुयायियों में पनपने लगा। यदि अब भी कुछ नहीं किया, तो 'अभिनव भारत' पत्रिका बन्द हो जायेगी, ऐसी आशंका उन्हें होने लगी थी। तब उन्होंने जिन्दगी में पहली बार, और अन्तिम बार, एक छोटा-सा साहस कर दिखाया। उन्हें जब ब्रिटेन से भारत लाया जा रहा था तब फ्रान्स की सीमा में उन्होंने समुं में कूद कर भागने की कोशिश की थी। लेकिन मात्र 10 मिनट में ही सावरकर पकड लिये गये थे। हकीकत तो यह है कि सावरकर फ्रान्स की सीमा में भागने का गुनाह करके फ्रांसिसे सरकार के गुनहगार बनना चाहते थे, ताकि अंग्रेज सरकार की सजा से बच जाय। बाद में सावरकर माफीनामा लिखकर अण्डमान की जेल से रिहा हुए थे। अंग्रेज सरकार द्वारा निर्धारित मुद्दत तक वे रत्नागिरी जिले की सीमा से बाहर नहीं जायेंगे, ऐसा लिखित शर्तनामा उन्होंने अंग्रेजों को दिया था। वी. डी. सावरकर की इस 'महान क्रान्ति' के बाद तीन दशक तक भारत की आजादी के किसी भी आन्दोलन में उन्होंने भाग लिया हो या आजादी के लिए स्वयं कोई एक भी  आन्दोलन उन्होंने चलाया हो, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता।

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