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शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

मेक इन इंडिया की नीति गरीबी मिटा पायेगी ?

जो आर्थिक नीति मनमोहन सिंह ने 1991 के बाद देश में चलाई जो कि अमेरिका ब्रिटेन की तर्ज पर  थी। जिसमे एफडीआई था, पीपी मॉडल था, हर सेक्टर में विदेशी निवेश था। उसने  भारत में  कॉर्पोरेट की चकाचौंध और तकनीक को तो बढ़ाया और सायद जीडीपी के आंकड़े भी बढे लेकिन उसने भारत के लघु उद्योगों को भी जड़ से समाप्त कर दिया। जब से भारत में नई आर्थिक नीतियां लागू हुई तबसे किसानो के लिए सरकार के आम बजट से पैसा काम होता गया। किसान जिन्दा रहे या न रहे किसी ने सोचा नहीं। अब मोदी भी मनमोहन की उसी खींची लकीर को पकडे हुए हैं। और दुनियाभर में घूम-घूम कर पैसा मांग रहे हैं भारत में अपने उद्योग लगाने को कह रहे हैं। लेकिन सरकारों को यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत अमेरिका ब्रिटेन की तरह विकसित नहीं है इस नीति की दो योजनाएं कोयला घोटाले और 2जी घोटाले के रूप में फेल हो चुकी हैं।  कोर्ट ने कहा है कि सरकार कई इस आर्थिक नीति में ही खामी थी। तो क्या यह मान लिया जाए कि सरकारें जो नीतिया विकास के नाम पर बना रही है वह मात्र लूट का साधन है।
मोदी ने लांच किया मेक इन इंडिया 

 यहाँ आज भी आधी से ज्यादा आबादी रोटी पानी के लिए ही तरस रही है। इससे जीडीपी के आंकड़े तो जरूर बढ़ सकते है लेकिन गरीबी नहीं। सरकारें विकसित देशो की आर्थिक नीतियों की नक़ल तो कर सकती हैं लेकिन इस नई आर्थिक नीति को ऑपरेट नहीं कर पा रही है।  आधा ज्ञान हमेशा खरतरनक होता है। मनमोहन सिंह दुनिया के बड़े अर्थशास्त्री माने जाते हैं लेकिन विकसित अर्थव्यवस्था के मॉडल को भारत में लागू करने में इसीलिए फेल हो गए। तरक्की के लिए स्पेक्ट्रम वितरित किये लेकिन लूट मच गई, देश के पावर सेक्टर बढ़ने के लिए कोयले का निजीकरण किया लेकिन कॉर्पोरेट सारी सरकारी सम्पदा को चट कर गया। क्या मनमोहन सरकार को इस बात का ज्ञान नहीं रहा होगा कि एक -एक रूपये के लिए जो कारोबारी गरीबों को नहीं छोड़ते अगर उनको देश की अथाह सम्पदा लूटने की खुली छूट दी जाए तो वो ईमानदारी दिखाएंगे।  हुआ भी यही कोयला तो विकास के नाम पर निकला नहीं लेकिन ये कंपनियां मालामाल जरूर हो गई।  देश में बिजली की कीमतें आसमान छूने लगी कोयले की इतनी कमी कि विदेशो से आयत करना पड़े और देश अँधेरे में डूबने की कगार पर हो ऐसी विकासीय अर्थव्यवस्था क्या इस देश का भला करेगी।  और क्या गारंटी है कि जिस मेक इन इंडिया के नारे को मोदी लगा रहे हैं दुनिया भर को कहा जा रहा है कि भारत में आओ अपना सामान भारत में बनाओ और बेचो उसमे लूट नहीं मचेगी। याद रहे सोने की चिड़िया कहे जाने वाले भारत को व्यापार के नाम पर ही विदेशियों ने गुलाम बना दिया था।    

गुरुवार, 25 सितंबर 2014

सरकार की आर्थिक नीतियों पर कैसे भरोसा किया जाए

आज अमेरिका जाने से पहले दिल्ली के विज्ञानं भवन में प्रधानमंत्री मोदी निवेशकों को विश्वास दिलाने से नहीं चूके कि उनका पैसा डूबने नहीं दिया जायेगा। आखिर मोदी को यह कहने की जरूरत क्यों पड़ी? अगर सरकारी नीति के तहत कोई नवेशक पैसा लगाता है उसे डर किस बात का है। लेकिन सच यही है पहले सीएजी ने  कोयला आबंटन पर सवाल उठाया और अब सुप्रीम कोर्ट ने  1993 से 2010 में  आबंटित की गई 2014 कोल आबंटन को रद्द कर सरकारी नीति पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं।  और कहा कि इस नीति के तहत सरकार और निजी कंपनियों के खेल में देश को एक लाख 86 हजार करोड़ का चूना लगा है। अब सुप्रीम कोर्ट  ने कहा है की  निजी कंपनियां अपना बोरिया -बिस्तर बांध लें यानी अब निजी कंपनियां कोयला नहीं निकाल पाएगी। यानि आर्थिक सुधार के लिए जो नीति आज बन रही है वह आने वाले समय में गलत हो सकती है।  ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले निवेशकों की चिता बढ़ा दी है कि आने वाले समय में कही उनका पैसा डूब न जाए।  

 1993 से इस देश में आर्थिक सुधर के नाम पर जो नीतियां बनी उसे देश में एक ऐसा कॉर्पोरेट का बाजार खड़ा हो गया जिसके तले देश की सम्पति को सरकारी तंत्र के तहत ही लूटा गया।
 देश की तस्वीर चाहे तो कोयले से ही बदल सकती थी। लेकिन कोयला खदानों में  होने वाली ठकेदारी की लूट को जब पहली बार इंदिरा गांधी ने देखा तो 1972 में देश की तमाम कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण होने के बाद 1993 तक निजी हाथो में यह सम्पति नहीं दी गई।  लेकिन 1993 क बाद यह मान लिया गया कि देश को आर्थिक गति देने के लिए कोयले को निजी हाथो में दे दिया जाये। और इस दौर में मनमोहन की यूपीए सरकार ने देश की कोयला खदानों को मिटटी के भाव आबंटित कर दिया। जिसमे से 175 खदानों का आबंटन रद्द कर दिया गया है। जिन भी कॉर्पोरेट घरानो की सरकारी तंत्र तक जान पहचान थी उन्होंने इस योजना का खूब लाभ उठाया।  जूते चप्पल बनाने से लेकर मीडिया हाउस चलने वाली कंपनियों ने भी कोयला खदाने अपने नाम कर ली। जिनको कोयला निकलने का कोई अनुभव नहीं था या फिर जिनके पास पावर प्लांट तो क्या लाइसेंस भीं नहीं था  उन्होंने कोयले की भारी मांग को देखते हुये कोयला खादान मुनाफा बनाने- कमाने के लिये अपने नाम करवा लिया। ऐसी 24 कंपनियां हैं, जिनके पास कोई पावर प्रोजेक्ट का नहीं है । लेकिन उन्हे खादान मिल गयी । 42 कंपनिया एसी है जिन्होंने खादानो की तरफ कभी झांका भी नहीं। लेकिन खादान अपने नाम कर खादान बेचने में लग गयी।
भारत में कोयले की अथाह सम्पति होने के बादभी देश भर में कोयले की कमी होने से बिजली का उत्पादन ठप्प होने की कगार पर है। बिजली की कमी से सीमेंट और स्टील उद्योग भी बुरे दौर से गुजर रहे हैं। अब बीते 21 बरस से लुटते इन कोयला खदानों को सुप्रीम कोर्ट ने डंडा चलाया है तो सवाल  यह भी खड़ा हो गया है कि सरकारी नीति के तहत जिन निवेशकों ने करोड़ों की सम्पति इन प्रोजेक्ट में लगाई तो क्या उनका पैसा डूब जायेगा ?  जिन बैंको ने पावर प्रोजेक्ट के नाम पर करोड़ों का कर्ज दिया उनका पैसा कहाँ से आएगा?  उन्होंने तो सरकार की नीति के तहत ही भरोसा करके कर्ज दिया था। यानी इस दौर में सरकार की आर्थिक नीति ही सवालो के घेरे में आ गई है इसीलिए मोदी विज्ञानं भवन में निवेशकों को ढांढस बंधाने से नहीं चूके।
सवाल यह भी है कि आर्थिक सुधारों के  नाम पर ट्रैक2 की जो पालिसी 1993 में मनमोहन ने अपनाई और वह नीति जिसमे अपने पारम्परिक उधोगों को ठोकर मारकर एफडीआई, पीपीपी मॉडल, बुलेट की रफ़्तार को ही तरजीह दी जा रही है तो यह रास्ता देश को चमका रहा है या इस देश की किसानी को ख़त्म कर समूचे भारत की पहचान को बदलना चाह रही है। क्या यह मान लिया जाए कई इस देश में विकास के नाम पर जो नीतियां बन रही है या जो बनती आई है वह विकास की चकाचौंध के नाम पर कार्पोरेट के लिए मात्र लूट का रास्ता खोलना है। क्योंकि इस देश में आज भी 60 प्रतिशत से ऊपर लोग कृषि पर निर्भर हैं और देश की जीडीपी में कृषि का योगदान मात्र 17 प्रतिशत भी मुश्किल से है जबकि आज़ादी से पहले देश की जीडीपी में 60 प्रतिशत से ऊपर कृषि का योगदान हुआ करता था।  सरकार का सारा ध्यान विदेशी निवेश और कॉर्पोरेट पर है। वहीँ दूसरी तरफ आजादी के 68 बरस बाद भी देश का एक तबका रोटी कपडा और मकान दो का ही नारा लगा रहा है।
 दरअसल इस देश में 1993 के बाद किसानो के लिए न तो कोई क्रांतिकारी कदम उठाया इसी का कारण है कि हजारों की संख्या में किसानो ने आत्महत्याएं की हैं। हर सरकार अपने कार्यकाल में विकासदर का आंकड़ा बढ़ाना चाहती है और उसके लिए उस 30 प्रतिशत कॉर्पोरेट पर ही पैसा लगाती है। लेकिन आप ही  बताएं कि किसी भी देश की तरक्की का पैमाना क्या होना चाहिए  मीटर पर जीडीपी का चार से पांच होना या देश के हर नागरिक के पेट में रोटी पहुचना और सुविधाएं देना।



बुधवार, 24 सितंबर 2014

मंगल पर भारत के कदम, और एक अजीब सी कल्पना

"जब ज़ीरो दिया मेरे भारत ने.....देता न दशमलव भारत तो चाँद पे जाना मुश्किल था , धरती और चांद की दूरी का अंदाज़ा लगाना मुश्किल था .......भगवान करे यह आगे बढे आगे बढे बढ़ता ही रहे 

 24 सितम्बर 2014 को सुबह 7 बज कर 17 मिनट पर पीएसऍलवी सी-25  के जैसे ही मंगल की कक्षा में स्थापित होने के सिग्नल श्रीहरिकोटा के सतीश भवन में व्याकुलता से बैठे वैज्ञानिकों तक पहुंचे तो भवन तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।  भारत ने एक ऐसी उपलब्धि  हासिल कर ली जो दुनिया के कई विकसित देश तक नहीं कर पाये। भारत  दुनिया का ऐसा पहला देश बन गया जिसने अपने पहले ही प्रयास में मंगल पर अपना डेरा जमा लिया। और एशिया का ऐसा पहला देश जो मंगल पर पंहुचा है।  इससे पहले चीन, जापान भी प्रयास कर चुके हैं लेकिन असफल रहे। एक सबसे महत्वपूर्ण बात यह भी है कि इस मंगल मिशन में भारत ने मात्र 450 करोड़ (करीब 6 करोड़ 90 लाख डॉलर)  रूपये खर्च करके कामयाबी हासिल की है इतनी रकम तो एक हॉलीवुड की फिल्म बनाने में ही खर्च हो जाते हैं।

मंगल पर भारत के कदम 


 वैसे तो भारतीय वैज्ञानिको ने ज़ीरो, दशमलव,जैसे  दुनिया को कई अविष्कारों से रूबरू करवाया है लेकिन यह कामयाबी इसलिए खास है क्योंकि पृथ्वी के साथ - साथ ऐसे कई ग्रह हैं जिनके बारे में जानने का प्रयास दुनिया भर के वैज्ञानिक कई वर्षो से कर रहे हैं कि क्या इन ग्रहो में भी पृथ्वी जैसा जीवन है ? क्या इन ग्रहों में भी मनुष्य की तरह कोई प्राणी होगा ? इन ग्रहों के अंदर की दुनिया के बारे में जानने की उत्सुकता तब और भी बढ़ जाती है जब फिल्मो के जरिये ऐसे कई वैज्ञानिक रहष्यों का ज़िक्र किया जाता जाता जिसमे उड़नतस्तरी या दुसरे ग्रह के प्राणियों का पृथ्वी पर आना होता है। यह जानने की उत्सुकता बढ़ जाती है कि क्या हम कभी इन दूसरी दुनिया के प्राणियों से कम्युनिकेट कर पाएंगे। काश ऐसा हो पाता जब हम दूसरे ग्रहो के निवासियों से रूबरू हो पाते, कि क्या उन ग्रहो की दुनिया में भी फिल्मे बनती होगी। क्या उन ग्रहों में कोई क्रिकेट जैसा खेल खेला जाता होगा। क्या वहां भी नेता के घोटाले होते होंगे।  क्या वो भी मोबाइल या कंप्यूटर जैसी किसी तकनीक का इस्तेमाल करते होंगे।

पीएसऍलवी सी-25 मंगल की कक्षा में 

 क्या उन ग्रहो के लोग भी पृथ्वी और हमारे बारे में जानने के उत्सुक होंगे। आप को यह बता दें कि पृथ्वी 30 किमी प्रति सेकंड और मंगल 24 किमी प्रति सेकंड की रफ्तार से दौड़ रहा था। आप जानते हैं कि जिन कक्षाओं (आर्बिट्स) में दोनों ग्रह सूरज की परिक्रमा कर रहे हैं, वे आपस में पास-पास हैं। पृथ्वी की कक्षा अंदर पड़ती है, मंगल की बाहर। हरेक 780 दिनों के बाद पृथ्वी मंगल को ओवरटेक करती है। पृथ्वी से चलकर मंगल के निकट पहुंचने वाले किसी यान के पास चार विकल्प होते हैं। एक, वह मंगल के पास से होता हुआ निकल जाए और अंतरिक्ष में भटक जाए। दो, वह अपनी स्पीड को इतना कम कर ले कि मंगल की ग्रैविटी उसे पकड़ ले और वह मंगल के गिर्द घूमने लगे। तीन, वह मंगल से टकरा कर उस पर क्रैश लैंड कर जाए। चार, टकराने से पहले उल्टी दिशा में जोर लगा कर वह मंगल की सतह पर सॉफ्ट लैंड कर जाए। इसरो ने अपने मंगलयान के लिए नंबर दो वाले विकल्प को चुना है। यानी, मंगलयान मंगल पर उतरेगा नहीं, केवल मंगल के आसमान में एक नकली चांद बन कर उसकी परिक्रमा करने लगेगा और कई महीनों के लिए उस दुनिया में तांक-झांक करता रहेगा।