भारतीय राजनीति में यह पहली बार नहीं हुआ है जब आदोलन की पृष्ठभूमि से निकली एक नयी पार्टी ने बड़े -बड़े दिग्गजों को धराशाही कर दिया. पहले भी ऐसे मौके कई बार आये जब जनता ने जम्हूरियत का जीता जागता उदाहरण दिया. बात तब चाहे 1975 में इंदिरा के खिलाफ जेपी के सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन से निकले लालू की हो! या फिर आंध्र क्रांति से निकले एनटीआर की हो, जब जब स्थापित पार्टियों ने जनसरोकारी राजनीति से इतर आम आदमी की नहीं सुनी तब-तब जनता ने नए राजनीतिक विकल्प तलाश की लेकिन जनता ने जिन्हे विकल्प के रूप में देखा उनकी राजनीति भी आगे चलकर उसी भ्रष्ट राजनीति का हिस्सा बन गयी. इसीलिए यह सवाल उठना लाज़मी है कि आंदोलन के गर्भ से निकली दिल्ली की आम आदमी पार्टी कुछ अलहदा कर पायेगी या नहीं ?
इस पार्टी का भविष्य चाहे जो भी हो लेकिन दिल्ली में एक साल की आम आदमी पार्टी ने जिस तरह भाजपा और कांग्रेस जैसी बड़ी और स्थापित पार्टियों की जड़ें हिलायी है वह साफ़ संकेत देती है कि मौजूदा वक़्त में लोग बदलाव की राजनीति चाहते हैं, जो कि भ्रष्टाचार मुक्त हो. इन चार राज्यों में हुए चुनावो ने यह जतला भी दिया है, पिछले 10 सालों से केंद्र में राज कर रही कांग्रेस पार्टी के कार्यकाल में कई घोटाले हुए. महगाई बढ़ी, विकास दर कम होती गई, जनता में एक आक्रोश था ,शायद चार राज्यों में कांग्रेस की हार का प्रमुख कारण केंद्र सरकार के खिलाफ एंटीइनकम्बेंसी ही बनी. चुनाव परिणाम के बाद राहुल गांधी को केजरीवाल से सीख लेनी चाहिए कि भ्रष्ट व्यवस्था से परेशान जनता में विश्वास कैसे जगाया जाये, चुनाव परिणामों के बाद राहुल गांधी ने मीडिया से अपनी प्रतिक्रिया में ये कहा भी कि युवाओ को न जोड़ना हमारी गलती रही, भाजपा और कांग्रेस की ही बात करें तो ये युवावो को मौका देने की बात तो करते रहे लेकिन परिवार वाद इन पार्टियों में हमेशा हावी रही. चार राज्यों में हुए चुनावो पर ही नजर डालें तो मध्य प्रदेश , छत्तीसगढ़ . राजस्थान , और दिल्ली में कई नेताओ के ही बेटों या बेटियों को टिकट दिए गए, दिल्ली की बात करें तो भाजपा के विजय जौली, साहिब सिंह वर्मा, के बेटे चुनाव में खड़े थे, उसके इतर आम आदमी पार्टी ने कई ऐसे पढ़े-लिखे युवावों को टिकट देकर विधायक बना दिया जो कल तक रोजगार की तलाश में सड़कों पर थे, व्यवस्था परिवर्तन के लिए सड़कों पर आंदोलन का हिस्सा थे, और उसी आम युवा ने दिल्ली चुनावों में बड़ी पार्टियों के दिग्गजों को कुर्सी से बेदखल कर दिया, शायद यही लोकतंत्र की खूबसूरती है, कि जनता जन जाये तो व्यवस्था तो उसकी मुठ्ठी में है, दिल्ली के चुनाव परिणामों ने एक सवाल तो हर एक के जेहन में खड़ा कर दिया है कि अगर आगामी लोकसभा चुनावों में देश को कोई भरोसेमंद रानीतिक विकल्प मिले तो जनता भाजपा और कांग्रेस से इतर उसे तरजीह दे सकती है, बशर्ते भारत जैसे भौगोलिक विषमता वाले देश में जहाँ हर वोटर पढ़ा लिखा नहीं है, पीएम को लेकर उनके जेहन में इंदिरा से आगे बात बढ़ती ही नहीं और वो आज भी गांधी और अटल को ही देखकर वोट डालते हैं उनको अन्ना जैसे लोग को जागरूक करते रहे,
क्या देश जाग रहा है ? क्योंकि देश मैं सेक्युलर विचारधारा का हूँ... मैं साम्यवादी विचारधारा का हूँ... , और मैं हिन्दू,विचारधारा का हूँ, ....जैसे नेताओं के चुनावी हथियारों ने लोगों को खूब ठगा है, मजहब के नाम पर वोट पाने वाली राजनीती इन चार राज्यों में हुए चुनावों में कमजोर होती हुई दिखी, हिन्दू पार्टी समझी जाने वाली भाजपा को मध्य प्रदेश में मुसलमानों का भी खूब साथ मिला, वही राजस्थान में अशोक गहलोत का वोटबैंक कहे जाने वाली मीणा गहलोत का साथ छोड़ते दिखे, तो क्या ये मान लिया जाये कि धर्म की राजनीति का तिलिस्म भी धीरे- धीरे खत्म होता जा रहा है? और यह चुनाव इसका संकेत मात्र है, ....इससे आगे की चर्चा अगले पोस्ट में करूँगा.......
इस पार्टी का भविष्य चाहे जो भी हो लेकिन दिल्ली में एक साल की आम आदमी पार्टी ने जिस तरह भाजपा और कांग्रेस जैसी बड़ी और स्थापित पार्टियों की जड़ें हिलायी है वह साफ़ संकेत देती है कि मौजूदा वक़्त में लोग बदलाव की राजनीति चाहते हैं, जो कि भ्रष्टाचार मुक्त हो. इन चार राज्यों में हुए चुनावो ने यह जतला भी दिया है, पिछले 10 सालों से केंद्र में राज कर रही कांग्रेस पार्टी के कार्यकाल में कई घोटाले हुए. महगाई बढ़ी, विकास दर कम होती गई, जनता में एक आक्रोश था ,शायद चार राज्यों में कांग्रेस की हार का प्रमुख कारण केंद्र सरकार के खिलाफ एंटीइनकम्बेंसी ही बनी. चुनाव परिणाम के बाद राहुल गांधी को केजरीवाल से सीख लेनी चाहिए कि भ्रष्ट व्यवस्था से परेशान जनता में विश्वास कैसे जगाया जाये, चुनाव परिणामों के बाद राहुल गांधी ने मीडिया से अपनी प्रतिक्रिया में ये कहा भी कि युवाओ को न जोड़ना हमारी गलती रही, भाजपा और कांग्रेस की ही बात करें तो ये युवावो को मौका देने की बात तो करते रहे लेकिन परिवार वाद इन पार्टियों में हमेशा हावी रही. चार राज्यों में हुए चुनावो पर ही नजर डालें तो मध्य प्रदेश , छत्तीसगढ़ . राजस्थान , और दिल्ली में कई नेताओ के ही बेटों या बेटियों को टिकट दिए गए, दिल्ली की बात करें तो भाजपा के विजय जौली, साहिब सिंह वर्मा, के बेटे चुनाव में खड़े थे, उसके इतर आम आदमी पार्टी ने कई ऐसे पढ़े-लिखे युवावों को टिकट देकर विधायक बना दिया जो कल तक रोजगार की तलाश में सड़कों पर थे, व्यवस्था परिवर्तन के लिए सड़कों पर आंदोलन का हिस्सा थे, और उसी आम युवा ने दिल्ली चुनावों में बड़ी पार्टियों के दिग्गजों को कुर्सी से बेदखल कर दिया, शायद यही लोकतंत्र की खूबसूरती है, कि जनता जन जाये तो व्यवस्था तो उसकी मुठ्ठी में है, दिल्ली के चुनाव परिणामों ने एक सवाल तो हर एक के जेहन में खड़ा कर दिया है कि अगर आगामी लोकसभा चुनावों में देश को कोई भरोसेमंद रानीतिक विकल्प मिले तो जनता भाजपा और कांग्रेस से इतर उसे तरजीह दे सकती है, बशर्ते भारत जैसे भौगोलिक विषमता वाले देश में जहाँ हर वोटर पढ़ा लिखा नहीं है, पीएम को लेकर उनके जेहन में इंदिरा से आगे बात बढ़ती ही नहीं और वो आज भी गांधी और अटल को ही देखकर वोट डालते हैं उनको अन्ना जैसे लोग को जागरूक करते रहे,
क्या देश जाग रहा है ? क्योंकि देश मैं सेक्युलर विचारधारा का हूँ... मैं साम्यवादी विचारधारा का हूँ... , और मैं हिन्दू,विचारधारा का हूँ, ....जैसे नेताओं के चुनावी हथियारों ने लोगों को खूब ठगा है, मजहब के नाम पर वोट पाने वाली राजनीती इन चार राज्यों में हुए चुनावों में कमजोर होती हुई दिखी, हिन्दू पार्टी समझी जाने वाली भाजपा को मध्य प्रदेश में मुसलमानों का भी खूब साथ मिला, वही राजस्थान में अशोक गहलोत का वोटबैंक कहे जाने वाली मीणा गहलोत का साथ छोड़ते दिखे, तो क्या ये मान लिया जाये कि धर्म की राजनीति का तिलिस्म भी धीरे- धीरे खत्म होता जा रहा है? और यह चुनाव इसका संकेत मात्र है, ....इससे आगे की चर्चा अगले पोस्ट में करूँगा.......
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