मेरी ब्लॉग सूची

गुरुवार, 23 जनवरी 2014

जब सरकार ही धरने पर बैठ जाए तो....

भारतीय लोकतंत्र में संविधान लागू हुए 60 बरस से ज्यादा का वक़्त हो चला है, लेकिन किसी लोकतान्त्रिक देश में इससे बड़ी त्रासदी क्या सकती है जहाँ जनता को सरकार तक अपनी बात कहने के लिए आंदोलनो और धरनो का सहारा लेना पड़े और जब मुख्यमंत्री और उनकी सरकार ही धरने पर बैठ जाये तो आम आदमी की आवाज इस देश के भीतर कहाँ तक पहुचती है इसका अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है.  क्योंकि जब संविधान की शपथ लेकर बनी सरकार और उसके मंत्री ही जब संवैधानिक व्यवस्था को चुनौती दे दें. और समस्या के समाधान के लिए संविधान में लिखे तौर तरीकों से इतर चलकर आंदोलन और धरनो का रास्ता चुने तब क्या यह मान लिया जाये की लोकतंत्र में संविधान का मतलब कुछ भी नहीं और धरने, आंदोलन आज की राजनैतिक व्यवस्था की जरूरत.
 क्योंकि जिस तरह से आंदोलन से निकली आम आदमी पार्टी ने सड़क पर आंदोलन कर दिल्ली की सत्ता हासिल की और धारा 144  को ताक पर रखकर पुलिस अफसरों  को हटाने को लेकर सड़क पर जमकर हंगामा काटा. उससे खुलेतौर पर जो संकेत मिले वो यह कि सरकार के प्रति वर्त्तमान परिस्थितियों को लेकर जनता में जो गुस्सा है उसको आंदोलन का रूप देकर राजनैतिक लाभ प्राप्त किया जा रहा है. क्योंकि 2014  के आम चुनाव के मध्यनजर दिल्ली से ही सियासी पैंतरेबाजी शुरू हो चुकी है. पहले दिल्ली की ही नयी -नवेली सरकार की बात करें तो  दिल्ली के क़ानून मंत्री सोमनाथ भारती सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को अनदेखा कर पुलिसिया अंदाज़ में उतर गए और फिर पुलिस अफसरों को हटाने की मांग को लेकर सड़क पर आंदोलन कर डाला, साथ ही इन सबके बावजूद ऐसी कौन सी परिस्थितियां है जिनसे डरकर केजरीवाल सरकार हर काम को शॉर्टकट में निपटा देना चाहती है क्योंकि सरकार का कार्यकाल तो 5  साल होता है . भले ही केजरीवाल के इन तौर तरीकों को कितना ही असंवैधानिक क्यों न माना जाए इस सबके इतर एक सच यह भी है कि इन सब मे जनता केजरीवाल के निकट आ रही है. इसका कारण है  कई सालों के जनसरोकार से दूर जाती राजनैतिक व्यवस्था. भले ही केजरीवाल के ये  राजनैतिक तौर तरीके राजनैतिक हानि लाभ के लिए हो लेकिन इससे जनता में उनके प्रति आकर्षण बढ़ रहा है. यानि ये तौर तरीके जनता को भा रहे है. और वह इसलिए कि कई सालों से भाजपा, कांग्रेस जिस तरह जनता को ठगा है और क्रोनी कैपिटलिज्म इस देश के भीतर शुरू हुआ उससे जनता में राजनीति के प्रति एक घृणा का भाव आ गया था, और अब उसके सामने आप पार्टी एक विकल्प के तौर पर दिखायी दे रहा है, ये विकल्प कितना सही होगा आने वाला वक़्त बतायेगा, क्योंकि अब तक जो किया जनता ने किया सरकार बदल कर अब जो करना है वो केजरीवाल को.
 . भारतीय संविधान के तहत आम नागरिकों के जो अधिकार हैं वह उन्ही लो पाने के लिए जद्दोजहद कर रहा है, तो क्या संविधान लागू होने के 60 बरस बाद भी हम वही खड़े हैं जहाँ 60 बरस पहले थे, हमारी आज़ादी में आंदोलनो का बड़ा योगदान रहा लेकिन तब आंदोलन अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ था, लेकिन आज के दौर में आंदोलनो और धरनो का मतलब क्या यह  निकाला  जाए कि संविधान आज भी लागू नहीं हो पाया, जनता की चुनी सरकार जनता की नहीं सुनती. तो फिर लोकतंत्र का मतलब क्या है ?   जब संविधान के तहत हर समस्या के समाधान का एक संवेधानिक रास्ता है तो आज के दौर में धरनो का मतलब क्या निकाल जाए ? या जिस तरह अन्ना के आंदोलन से निकली आप पार्टी ने आंदोलन करके दिल्ली की गद्दी पा ली उसका मतलब धरना आंदोलन सिर्फ राजनैतिक लाभ-हानि के लिए है. देखते जाइये 65 साल के इस गणतंत्र में वर्त्तमान राजनीति गणतांत्रिक व्यवस्था को चुनौती दे रही है,