यह तो तय है की 2014 के लोकसभा चुनाव भी राजनीतिक पार्टियां जातीय समीकरणों के आधार पर लड़ने जा रही हैं। पार्टियां जातीय आधार पर हिन्दू और मुसलमानों में धु्रवीकरण की राजनीति के नायाब फॉर्मूले अपना रही हैं। इंटेलीजेंस ब्यूरो की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में हिन्दु, मुस्लिम समुदाय में यह धु्रवीकरण एक अंडर-करंट के रूप में फैल रहा है।
उत्तरप्रदेश जैसे बड़े राज्य में यह सबसे तेजी से फैल रहा है और मीडिया सर्वे इसका संकेत भी दे रहे हैं। पिछले कुछ दिनों में कई ऐसी घटनाएं हुई हैं या प्रायोजित की गई हैं जिससे माइनॉरिटी या मेज्योरिटी के आधार पर लोगों में 2014 के मध्यनजर जनमत तैयार किया जा सके। इस बात में कोई दो राय नहीं कि जब-जब देश के भीतर जातीय हिंसा हुई तब-तब माइनॉरिटी और मज्योरिटी के आधार पर सत्ता का निर्धारण हुआ है। तब चाहे बात 1984 के बाद की सत्ता हो या 2002 के बाद मोदी का गुजरात में फिर से सत्ता पाने की हो। देश के एक बड़े और अहम् राज्य यूपी के मेरठ में हिन्दुत्व की पाठशाला नरेंनद्र मोदी की रैली के दौरान पहली बार जैसी भीड़ दिखी वह कहीं न कहीं यह संकेत भी हैं कि यूपी में मुज्जफरनगर दंगों के बाद जातीय धु्रवीकरण की बात को खारिज नहीं किया जा सकता है। टीवी चैनल टाइम्स नाउ में राहुल गांधी के 1984 के दंगो को लेकर माफी न मांगने वाली बात को मीडिया ने जिस गैर जिम्मेदार तरीके से उठाया और भाजपा ने उसे जिस गति से लपका उसने चुनाव से पहले देश में गवर्नेंस के मुद्दों से इतर जातीय विभाजन के आधार पर वोटबैंक का माहौल बना दिया। दूसरी तरफ देश की नयी पार्टी आम आदमी पार्टी ने 2014 के चुनावो से ठीक पहले जिस तरह 1984 के दंगो की जांच एसआईटी से करवाने की बात करके जोरदार सियासी चाल चली है उससे पार्टी को जातीय आधार पर लाभ मिलना तय है जबकि अपने तरकस में यह तीर गवर्नेंस के मुद्दों की बात करने वाली आम आदमी पार्टी दिल्ली चुनाव से पहले ही रख चुकी थी, जिसका उसे लाभ दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिला भी। बात अगर मुस्लिम अलपसंख्यक समाज की करें तो देश की 200 से अधिक लोकसभा सीटों का फैसला मुस्लिम वोट तय करते हैं। राजेंदर सच्चर रिपोर्ट में जो मुसलमानो की स्थिति दिखाई गई है उसका एक नायाब सच यह भी है कि नेहरू से लेकर मनमोहन के दौर तक मुसलमानो के लिए 210,00 से भी ज्यादा कल्याणकारी योजनाएं लायी जा चुकी हैं लेकिन इन योजनाओ की हकीकत कागजों तक ही सीमित रही, ताकि हर चुनाव से पहले राजनीतिक पार्टियों के लिये अल्पसंख्यक समुदाय चुनाव जीतने का रॉ -मटीरियल बना रहे और कांग्रेस, भाजपा इस बात को हर चुनाव में दोहराती रहे कि अल्पसंख्यक समाज हासिये पर पड़ा हुआ है, और सच है भी यही। तो हकीकत यही मान लिया जाए कि अल्पसंख्यक समुदाय राजनीति में सिर्फ एक वोटबैंक है और इनके इम्पावर की बात हर राजनीतिक दल हर बार इसलिए करना चाहता है ताकि आने वाले हर चुनाव में अल्पसंख्यक शब्द वोट खींचने का जरिया बना रहे।
उत्तरप्रदेश जैसे बड़े राज्य में यह सबसे तेजी से फैल रहा है और मीडिया सर्वे इसका संकेत भी दे रहे हैं। पिछले कुछ दिनों में कई ऐसी घटनाएं हुई हैं या प्रायोजित की गई हैं जिससे माइनॉरिटी या मेज्योरिटी के आधार पर लोगों में 2014 के मध्यनजर जनमत तैयार किया जा सके। इस बात में कोई दो राय नहीं कि जब-जब देश के भीतर जातीय हिंसा हुई तब-तब माइनॉरिटी और मज्योरिटी के आधार पर सत्ता का निर्धारण हुआ है। तब चाहे बात 1984 के बाद की सत्ता हो या 2002 के बाद मोदी का गुजरात में फिर से सत्ता पाने की हो। देश के एक बड़े और अहम् राज्य यूपी के मेरठ में हिन्दुत्व की पाठशाला नरेंनद्र मोदी की रैली के दौरान पहली बार जैसी भीड़ दिखी वह कहीं न कहीं यह संकेत भी हैं कि यूपी में मुज्जफरनगर दंगों के बाद जातीय धु्रवीकरण की बात को खारिज नहीं किया जा सकता है। टीवी चैनल टाइम्स नाउ में राहुल गांधी के 1984 के दंगो को लेकर माफी न मांगने वाली बात को मीडिया ने जिस गैर जिम्मेदार तरीके से उठाया और भाजपा ने उसे जिस गति से लपका उसने चुनाव से पहले देश में गवर्नेंस के मुद्दों से इतर जातीय विभाजन के आधार पर वोटबैंक का माहौल बना दिया। दूसरी तरफ देश की नयी पार्टी आम आदमी पार्टी ने 2014 के चुनावो से ठीक पहले जिस तरह 1984 के दंगो की जांच एसआईटी से करवाने की बात करके जोरदार सियासी चाल चली है उससे पार्टी को जातीय आधार पर लाभ मिलना तय है जबकि अपने तरकस में यह तीर गवर्नेंस के मुद्दों की बात करने वाली आम आदमी पार्टी दिल्ली चुनाव से पहले ही रख चुकी थी, जिसका उसे लाभ दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिला भी। बात अगर मुस्लिम अलपसंख्यक समाज की करें तो देश की 200 से अधिक लोकसभा सीटों का फैसला मुस्लिम वोट तय करते हैं। राजेंदर सच्चर रिपोर्ट में जो मुसलमानो की स्थिति दिखाई गई है उसका एक नायाब सच यह भी है कि नेहरू से लेकर मनमोहन के दौर तक मुसलमानो के लिए 210,00 से भी ज्यादा कल्याणकारी योजनाएं लायी जा चुकी हैं लेकिन इन योजनाओ की हकीकत कागजों तक ही सीमित रही, ताकि हर चुनाव से पहले राजनीतिक पार्टियों के लिये अल्पसंख्यक समुदाय चुनाव जीतने का रॉ -मटीरियल बना रहे और कांग्रेस, भाजपा इस बात को हर चुनाव में दोहराती रहे कि अल्पसंख्यक समाज हासिये पर पड़ा हुआ है, और सच है भी यही। तो हकीकत यही मान लिया जाए कि अल्पसंख्यक समुदाय राजनीति में सिर्फ एक वोटबैंक है और इनके इम्पावर की बात हर राजनीतिक दल हर बार इसलिए करना चाहता है ताकि आने वाले हर चुनाव में अल्पसंख्यक शब्द वोट खींचने का जरिया बना रहे।