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मंगलवार, 14 जुलाई 2015

संवैधानिक संस्थाओं के जरिये संघ की घुसपैठ

हमारे शिक्षण संस्थानों में धार्मिकता को क्यों जगह दी जानी चाहिए अगर शिक्षा का मतलब देश  का विकास है तो, विकास तो अच्छे इंजीनियर, डॉक्टर, एवं अफसरों के जरिये होगा तो शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक सामग्री पढाई ही क्यों जाये। यह सवाल सरकार के उस फैसले के बाद उठा जिसमे मदरसों में विज्ञान, मैथ्स अन्य विषयों के बिना मान्यता न देने की बात कही गई, बात भी सही है  क्या बिना धार्मिक कर्मकांड के स्कूल, विद्यालय नही चल सकते?  बात मदरसो की ही नहीं संघ द्वारा संचालित सरस्वती शिशु मंदिर जो  देश में शिक्षा के नाम पर अपनी बड़ी उपलब्धि बताई जाती हैं, लेकिन क्या उनमे हिन्दू धर्म के अतिरिक्त किसी दूसरे धर्म बच्चे पढ़ सकते हैं ? या मदरसों में किसी हिन्दू का बच्चा पढ़ सकता है?  मतलब सीधा है कि शिक्षा संस्थानों के जरिये धर्म का पाठ पढ़ना पहला उद्देश्य है और सफल डॉक्टर या इंजीनियर बनाना बाकी की बात है। अब तो देश में जिसकी सरकार होगी उसी की विचारधार से जुड़े संगठनो के छात्रों को एडमिशन आसानी से मिलने लगा है।
देशभर के कॉलेजों में भाजपा संघ जे जुड़ा संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद एबीवीपी अपनी विचारधारा का जमकर प्रचार करती है, उसी तरह एनएसयूआई कांग्रेस की और आइसा वाम धारा का, जिनका पहला मकसद होता है विचारधार का प्रचार करना लेकिन आईआईटीएम में जब एक संगठन ईवी रामासामी पेरियार के नाम पर उभरा तो संघ की सरकार ने उस पर प्रतिबन्ध लगा दिया,  क्योंकि पेरियार का नाम रूढ़िवादी हिंदुत्व के विरोधी के रूप में लिया जाता है और पेरियार की सच्ची रामायण,नामक किताब में रामायण के किरदारों पर आपत्तिजनक बातों को लेकर विवादों में भी रही इससे बड़ा सवाल तो विचारधारा के प्रसार का है।
दरअसल ये सारी बातें उस मुद्दे की पृष्ठभूमि को दर्शाती है जिसको लेकर देशभर में एक बहस छिड़ी हुई है कि वर्तमान सरकार संविधान द्वारा बनाई गई सांस्कृतिक, शैक्षणिक संस्थाओं को एक विशेष विचारधारा से जुड़े लोगों के हाथों में सौपं रही है ? जिसमे एफटीआईआई पुणे ताज़ा उदाहरण है। अगर सरकार सच में इन संवैधानिक शिक्षण एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के जरिये देश को आगे ले जाना चाहती है है तो उनकी बागडोर ऐसे लोगों के पास क्यों नही दी जानी चाहिए जिनमे योग्यता हो, और तरक्की के लिए तो यही पहला कदम होना चाहिए लेकिन बिना योग्यता के अपने अयोग्य लोगो के हाथों में इनकी बागडोर देने का मतलब आखिर है क्या ? छात्र खुद जिसके नेतृत्व में पढ़ना नहीं चाहते।  इसमें सरकार अपने लोगों का निजी फायदा देख रही है या इसके पीछे कोई लम्बी सोच है?  लेकिन संदेह तब और गहरा हो गया जब अचानक देश के स्कूलों कॉलेजों के पाठ्यक्रमों में अचानक बदलाव होने लगे, राजस्थान सरकार ने तो विश्व विद्यालयों में फरमान जारी करवा दिया कि राकेश सिन्हा के द्वारा हेडगेवार (संघ संस्थापक) पर लिखी पुस्तक को  पढ़ाया जाना अनिवार्य कर दिया जाये।  इसी तरह संघ के महापुरुष हर जगह पाठ्यक्रम में शामिल किये जाने लगे। संघ की सरकार जिस तरह संवैधानिक संस्थाओं पर जिन लोगों को नियुक्त कर रही है उससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि सरकार को संस्थानों की भलाई से ज्यादा अभी उन पर कब्ज़ा जमाना है ताकि उन संस्थाओं के जरिये अपनी विचारधारा का प्रसार सरकारी नीतियों के बैनर तले लागू की जा सके। इसलिए इन संस्थाओ में योग्यता से ज्यादा विचारधारा वाला वाले व्यक्ति का होना अधिक आवश्यक है और पुणे का फिल्म ,टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया ( एफटीआईआई ) तो इसका एक छोटा सा उदाहरण है।
नई सरकार को देश की शिक्षा और भविष्य की दिशा की कितनी गंभीर इस बात का एहसास तो उसी दिन हो गया था, जब इस सरकार ने बमुश्किल 12वी पास की योग्यता रखने व्यक्ति के हाथों में पूरी शिक्षा नीति सौंप दी, चर्चा तो तब भी हुई थी लेकिन एक बहुमत से आई सरकार पर कौन सवाल उठा सकता था। दरअसल मोदी सरकार की मुश्किल यह है कि उसके किसी भी मंत्री के पास खुद का फैसला लेने का अधिकार दिया ही नही गया है, जो परदे के पीछे से संघ तय करेगा वही होगा, इसका अंदाजा आप तमाम शिक्षण संस्थाओ के पाठ्यकर्म में हो रहे बदलाओ को देखकर लगा सकते है कि कैसे अपने महापुरुषों को महान बनाया जा रहा है, अकबर भी अब महान नही रहा जगह महाराणा प्रताप ने ले ली। जब देश की पूरी शिक्षा नीति ही सरकार ने संघ को सौंप दी है तो पुणे का फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया (एफटीआईआई) में अयोग्य व्यक्ति को चेयरमैन बनाये जाने की बात पर कोई अफ़सोस नही करना चाहिए। बीते एक साल में संवैधानिक संस्थाओं में व्यक्तिओं को किस तरह नियुक्त किया गया इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सरकार ने भाजपा के प्रचारक मुकेश खन्ना को बाल फिल्म सोसिटी का अध्यक्ष बना दिया, हर हर मोदी घर घर मोदी का वीडियो बनाने वाले प्रह्लाद निहलानी को सेंसर बोर्ड का अध्यक्ष बना दिया। नेशनल बुक ट्रस्ट(एनबीटी) को पाञ्चजन्य के पूर्व संपादक बलदेव भाई शर्मा को सौंप दिया। भारतीय इतिहास अनुसन्धान जहाँ बड़े इतिहासकार नियुक्त किये जाते थे वहां भाजपा से जुड़े सुदर्शन राव को नियुक्त कर दिया।
तो सवाल संवैधानिक संस्थाओं के जरिये विकास का नही है बल्कि इनके जरिये भगवाकरण का है।

अगर मैं कहूँ कि दो सवालों का जवाब  एक ही हों तो ? आप मेरे एक सवाल पर ही सवाल खड़ा कर देंगे वो इसलिए क्योंकि जिस सवाल पर आप सवाल खड़ा करेंगे उससे आप भावनात्मक रूप में जुड़े होते हैं और आपको उस साल में कुछ भी गलत नही दिखता है। पहला सवाल यह है कि दुनिया के अनेकों धार्मिक संगठनो के मूल में है क्या ? उनका पहला मकसद क्या है ? शायद यही कि हर कोई संगठन किसी हिस्से पर सिर्फ अपना अधिकार चाहता है और उस अधिकार को पाने का रास्ता वो जो चुनती है वह इंसानियत के लिए बहुत खतरनाक है। वह आतंक का रास्ता है जिस पर आईएसआईएस चल रहा है,  और शायद और भी कई संगठन। भारत में हिंदूवादी संगठन आरएसएस पर भी गांधी की हत्या के आरोपों से लेकर मलेगावों धमाकों तक में नाम आने पर यही कहा गया कि रास्ता इनका भी कही वही तो नही।  दूसरी और इस्लामिक स्टेट भी दुनियां में खौफ की पहचान बन चुका है दुनिया के बड़े बड़े देशो के पढ़े लिखे युवा इसमें शामिल हो रहे हैं और वह सिर्फ राष्ट्रवाद के नाम पर, यही राष्ट्रवाद को जगाकर अपने से जोड़ने का काम हर कट्टरवादी संगठन कर रहे है।