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गुरुवार, 7 मई 2015

कमजोर होता उदार लोकतंत्र

पत्रकारिता हो वकालत हो या सोशल एक्टिविस्ट, इनकी साख इस दौर में धूमिल होती जा रही है। इनकी साख को वही लोग सबसे ज्यादा चोट पंहुचा रहे हैं जिन पर एक उदार लोकतंत्र बनाये रखने की जिम्मेदारी है।  इनको लेकर एक मात्र यही परसेप्शन बनता जा रहा है कि यह मात्र अधिक पैसे कमाने का जरिया है।  इनको इनकी मूल भावना से ही दूर किये जाने का प्रयास  इस दौर में लगातार किया जा रहा है। क्योंकि अगर ये अपना काम अपनी मूल भावना में रहकर करे तो सत्ता की हनक में मदहोश राजनेता इनसे तिल्मिलाएंगे ही।  चाहे प्रधानमंत्री मोदी हो या केजरीवाल जब -जब जिन पत्रकारों ने इनके काम काज या इनको कटघरे में खड़ा किया उनको ये बिकाऊ या न्यूज़ ट्रैडर्स कहने से नही चुके।  लेकिन जब मोदी सरकार के एक साल पूरे होने पर जेटली ने उन पत्रकारों को कॉकटेल पार्टी में बुलाया तो खुद प्रधान मंत्री मोदी इनको शाबासी देने के लिए पहुंचे तो वही वही न्यूज़ ट्रेडर झटके में पत्रकार कैसे बन गए। यानि यही निरंकुशता कहलाती है जो अपनी मर्जी का नही वह असत्य है।
Liberal democracy

 हालही में प्रधानमंत्री ने जजों के एक समारोह में उन सामाजिक कार्यकर्ताओं  पर ही सवाल उठा दिए जो सरकार की निरंकुशता और इनकी सत्ता की हनक में टांग अड़ाते हैं। लेकिन अगर हिट एंड रन केस में आभा सिंह जैसी वकील याचिका डालकर इतनी मेहनत न करती तो सायद की आज इस केस के पीड़ितों को न्याय मिलने की उम्मीद रहती और न ही न्यायपालिका को लेकर लोगों का भरोषा इतना बढ़ता।    
उदार लोकतंत्र के रूप में इंडिया की साख को चोट लग रही है। जिस तरह ने कुछ समय से एनजीओ और मीडिया को नियंत्रित करने की कोशिश की है वह लोकतंत्र के लिए अच्छा नही है।  एनजीओ पर राष्ट्र विरोधी हरकतों का आरोप लगाना दुनियाभर में निरंकुश सरकारों की हरकतों में शामिल रहा है। वहीं, धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाने पर लेने की घटनाओं के बारे में ताकतवर पीएम की चुप्पी से देश-विदेश में अच्छा संकेत नहीं गया है। यही वह पहलू है, जहां मोदी शासन से सबसे बड़ा फर्क पड़ा है। दुनिया में कोई पूर्ण लोकतांत्रिक देश नहीं है, लेकिन कुछ और लोकतांत्रिक होने की कोशिश करना अच्छा माना जाता है। मोदी की लीडरशिप में भारत के पीछे लौटने का खतरा दिख रहा है। भारत में कई गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) के खिलाफ सरकार की कार्रवाई पर अमेरिका ने  भी चिंता जाहिर की है।
अमेरिका के भारत में राजदूत रिचर्ड वर्मा ने एक कार्यक्रम में कहा कि बदलाव के लिए शांतिपूर्वक काम करने वाले लोग सरकार विरोधी नहीं होते और देश की सुरक्षा को कमजोर नहीं करते, बल्कि वे बेहतरी की चाहत में सुरक्षा को मजबूत ही करते हैं। वर्मा ने कहा कि हाल की कुछ मीडिया रिपोर्टों पर उन्हें चिंता हुई है कि भारत में काम कर रहे कई गैर सरकारी संगठनों को चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। गौरतलब है कि मोदी सरकार ने अमेरिका के फोर्ड फाउंडेशन द्वारा भारत की कई एजेंसियों को मदद दिए जाने पर ऐतराज किया है और उसे निगरानी सूची में रख दिया है।
ग्रीनपीस इंडिया जैसे संगठनों को विदेशी मदद पर रोक भी लगाई है। सरकार ने विदेशी मदद पाने वाले 9,000 एनजीओ के लाइसेंस इस आधार पर रद्द कर दिए हैं कि इन संगठनों ने विदेशी सहायता कानून का उल्लंघन किया है लोकतंत्र चुनाओ से कहीं बढ़कर है मुक्त समाज को लगातार आप लोगों से जुड़े विषयों पर बहस और विचार करना चाहिए।  राजनीतिक फायदे की आड़ में हम सख्त सवालों से नही बच सकते हम केवल इसलिए बहस से नहीं बच सकते क्योंकि हमें जवाब पसंद नही हैं .. चाहे वो कानून या पॉलिसीज को बदलने की बात हो या फिर उन्हें चुनौती देने का मामला हो जो शांतिपूर्वक बदलाव लाने में जुटे हैं वे सरकार के खिलाफ नही हैं।


सजा नही रोटी से मिलेगा इन्साफ

इसे अब न्याय प्रणाली का दोष कहिये या भारत में सुपरस्टार होने का फायदा सलमान खान को हिट एंड रन केस में दोषी करार देने में अदालत ने तरह बरस लगा दिए  और तेरह बरस बाद सजा सुनाई भी गई तो जमानत मिलने में घंटाभर लगा लेकिन इन 13 बरस में इस हादसे के पीड़ितों ने अपना सब कुछ गँवा दिया किसी ने हाथ, पांव तो किसी ने ज़िन्दगी ही गँवा दी कोई अपनी बहन की शादी नहीं करवा पाया तो किसी के लिए दो जून की रोटी मुश्किल हो गई लेकिन इन सबके इतर सलमान खान ने इन 13 सालों आसमान की बुलंदी छू ली और अब 13 बरस बाद निचली अदालत ने सजा सुना भी दी तो पीड़ितों को न्याय मिलेगा कैसे ? और कब तक मिलेगा क्योंकि 13 साल निचली अदालत में ही लग गए तो अभी हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट बाकी है।  बड़ा सवाल यह भी है कि पीड़ितों को इंसाफ सलमान को जेल जाने से मिल जायेगा क्या, क्योंकि निचली अदालत में भी अभी तक इनके जीवन के गुज़र बसर की बहस तो हुई ही नही यानि इनकी मुवावजे की बात तो हुई ही नही।  इन 13 बरस में हादसे के पीड़ितों के हाल तो यह हो चुके है कि उनको सलमान की सजा में कोई दिलचस्पी रही ही नही उनके सामने तो दो जून की रोटी का सवाल आज भी मौजूद है और वो बार-यहकह भी रहे हैं कि उन्हें बस मुवावजा दिया जाये. इस दुर्घटना में अब्दुल्ला रऊफ शेख को अपनी टांग खोनी पड़ी थी। कहता है  'पिछले 13 साल में कोई भी व्यक्ति मुझसे मिलने नहीं आया। मैं छोटे-मोटे काम करके अपने परिवार को पालता था। मुझे अपनी जिंदगी के इस दौर में काफी परेशानी झेलनी पड़ी। हालांकि, मेरे मन में सलमान के प्रति किसी तरह की नफरत की भावना नहीं है। मैं अब भी उनकी फिल्में देखता हूं। ऐसा बोलने के लिए मुझपर किसी ने दबाव नहीं डाला। मेरे लिए मुआवजा दोषी को सजा दिलाने से ज्यादा अहमियत रखता है। बीमारी के कारण मैं काम नहीं कर पाता। 'अगर सलमान को जेल भेज भी दिया जाता है तो मुझे कोई फायदा नहीं होगा। इससे न तो मेरी टांग मुझे वापस मिलेगी और न ही मेरी परेशानियों में किसी तरह की कमी आएगी। इसकी जगह अगर वह मुझे मुआवजा देंगे तो मुझे कोई समस्या नहीं होगी।' शेख ने कहा कि जब उन्होंने दुर्घटना में अपनी टांग गंवाई थी, तब वह 22 साल के थे।
इस हादसे में नूरउल्लाह महबूब शरीफ की मौत हुई थी। उनकी पत्नी ने कहा, 'हमें कहा गया था कि हमें 10 लाख का मुआवजा मिलेगा। अब जब महंगाई इतनी तेज रफ्तार से बढ़ रही है तो इतने थोड़े से मुआवजे के पैसे का हम क्या करेंगे? अगर इसकी जगह उनके बेटे को नौकरी दे दी जाती तो उन्हें काफी लाभ होता।'
मुवावजा देने के लिए तो सलमान तो हरहाल में तैयार भी होंगे लेकिन एक और सवाल यह भी है कि अगर सलमान खान को ऊपरी अदालत अब इस दलील पर कि वह मनचाहा मुवावजा पीड़ितों को देने को तैयार है इसलिए उनकी सजा माफ़ या कम की जाये तो न्याय पालिका पर भी सवाल उठेंगे ही कि यहाँ तो न्याय खरीद लिया जाता है. हो जो भी लेकिन सलमान खान को सजा कम से कम ऐसी तो मिलनी ही चाहिए जिससे ये सन्देश जाये कि कानून सबके लिए सामान है और पीड़ितों को ऐसा न्याय इस रूप म मिले की वह अपनी बाकी की ज़िन्दगी अच्छे से गुज़र बसर कर सकें। जिस देश के संविधान में न्याय प्रथम अधिकार के रूप में शामिल किया गया है वहां हज़ारों ऐसे लोग है जो न्याय के लिए अदालत का दरवाजा तक नही खटखटा सकते वकील को देने के लिए ऐसे नही।  वहीँ सलमान को सजा सुनाने  में तरह साल लग गए  और बेल मिले में घंटा भर इसने एक बात तो साबित कर ही दी कि भारतीय लोकतंत्र में न्याय गरीबी और अमीरी को पहचानता है।
अपराधियों को सजा और न्याय तो दूर की बात है की बात है भारतीय संसद और न्यायपालिका अभी इसी बहस में उलझी हुई है कि जजों को चुना कैसे जाये  कोलेजियम से या  एनजेएसी  से।
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