आज अमेरिका जाने से पहले दिल्ली के विज्ञानं भवन में प्रधानमंत्री मोदी निवेशकों को विश्वास दिलाने से नहीं चूके कि उनका पैसा डूबने नहीं दिया जायेगा। आखिर मोदी को यह कहने की जरूरत क्यों पड़ी? अगर सरकारी नीति के तहत कोई नवेशक पैसा लगाता है उसे डर किस बात का है। लेकिन सच यही है पहले सीएजी ने कोयला आबंटन पर सवाल उठाया और अब सुप्रीम कोर्ट ने 1993 से 2010 में आबंटित की गई 2014 कोल आबंटन को रद्द कर सरकारी नीति पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं। और कहा कि इस नीति के तहत सरकार और निजी कंपनियों के खेल में देश को एक लाख 86 हजार करोड़ का चूना लगा है। अब सुप्रीम कोर्ट ने कहा है की निजी कंपनियां अपना बोरिया -बिस्तर बांध लें यानी अब निजी कंपनियां कोयला नहीं निकाल पाएगी। यानि आर्थिक सुधार के लिए जो नीति आज बन रही है वह आने वाले समय में गलत हो सकती है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले निवेशकों की चिता बढ़ा दी है कि आने वाले समय में कही उनका पैसा डूब न जाए।
1993 से इस देश में आर्थिक सुधर के नाम पर जो नीतियां बनी उसे देश में एक ऐसा कॉर्पोरेट का बाजार खड़ा हो गया जिसके तले देश की सम्पति को सरकारी तंत्र के तहत ही लूटा गया।
देश की तस्वीर चाहे तो कोयले से ही बदल सकती थी। लेकिन कोयला खदानों में होने वाली ठकेदारी की लूट को जब पहली बार इंदिरा गांधी ने देखा तो 1972 में देश की तमाम कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण होने के बाद 1993 तक निजी हाथो में यह सम्पति नहीं दी गई। लेकिन 1993 क बाद यह मान लिया गया कि देश को आर्थिक गति देने के लिए कोयले को निजी हाथो में दे दिया जाये। और इस दौर में मनमोहन की यूपीए सरकार ने देश की कोयला खदानों को मिटटी के भाव आबंटित कर दिया। जिसमे से 175 खदानों का आबंटन रद्द कर दिया गया है। जिन भी कॉर्पोरेट घरानो की सरकारी तंत्र तक जान पहचान थी उन्होंने इस योजना का खूब लाभ उठाया। जूते चप्पल बनाने से लेकर मीडिया हाउस चलने वाली कंपनियों ने भी कोयला खदाने अपने नाम कर ली। जिनको कोयला निकलने का कोई अनुभव नहीं था या फिर जिनके पास पावर प्लांट तो क्या लाइसेंस भीं नहीं था उन्होंने कोयले की भारी मांग को देखते हुये कोयला खादान मुनाफा बनाने- कमाने के लिये अपने नाम करवा लिया। ऐसी 24 कंपनियां हैं, जिनके पास कोई पावर प्रोजेक्ट का नहीं है । लेकिन उन्हे खादान मिल गयी । 42 कंपनिया एसी है जिन्होंने खादानो की तरफ कभी झांका भी नहीं। लेकिन खादान अपने नाम कर खादान बेचने में लग गयी।
भारत में कोयले की अथाह सम्पति होने के बादभी देश भर में कोयले की कमी होने से बिजली का उत्पादन ठप्प होने की कगार पर है। बिजली की कमी से सीमेंट और स्टील उद्योग भी बुरे दौर से गुजर रहे हैं। अब बीते 21 बरस से लुटते इन कोयला खदानों को सुप्रीम कोर्ट ने डंडा चलाया है तो सवाल यह भी खड़ा हो गया है कि सरकारी नीति के तहत जिन निवेशकों ने करोड़ों की सम्पति इन प्रोजेक्ट में लगाई तो क्या उनका पैसा डूब जायेगा ? जिन बैंको ने पावर प्रोजेक्ट के नाम पर करोड़ों का कर्ज दिया उनका पैसा कहाँ से आएगा? उन्होंने तो सरकार की नीति के तहत ही भरोसा करके कर्ज दिया था। यानी इस दौर में सरकार की आर्थिक नीति ही सवालो के घेरे में आ गई है इसीलिए मोदी विज्ञानं भवन में निवेशकों को ढांढस बंधाने से नहीं चूके।
सवाल यह भी है कि आर्थिक सुधारों के नाम पर ट्रैक2 की जो पालिसी 1993 में मनमोहन ने अपनाई और वह नीति जिसमे अपने पारम्परिक उधोगों को ठोकर मारकर एफडीआई, पीपीपी मॉडल, बुलेट की रफ़्तार को ही तरजीह दी जा रही है तो यह रास्ता देश को चमका रहा है या इस देश की किसानी को ख़त्म कर समूचे भारत की पहचान को बदलना चाह रही है। क्या यह मान लिया जाए कई इस देश में विकास के नाम पर जो नीतियां बन रही है या जो बनती आई है वह विकास की चकाचौंध के नाम पर कार्पोरेट के लिए मात्र लूट का रास्ता खोलना है। क्योंकि इस देश में आज भी 60 प्रतिशत से ऊपर लोग कृषि पर निर्भर हैं और देश की जीडीपी में कृषि का योगदान मात्र 17 प्रतिशत भी मुश्किल से है जबकि आज़ादी से पहले देश की जीडीपी में 60 प्रतिशत से ऊपर कृषि का योगदान हुआ करता था। सरकार का सारा ध्यान विदेशी निवेश और कॉर्पोरेट पर है। वहीँ दूसरी तरफ आजादी के 68 बरस बाद भी देश का एक तबका रोटी कपडा और मकान दो का ही नारा लगा रहा है।
दरअसल इस देश में 1993 के बाद किसानो के लिए न तो कोई क्रांतिकारी कदम उठाया इसी का कारण है कि हजारों की संख्या में किसानो ने आत्महत्याएं की हैं। हर सरकार अपने कार्यकाल में विकासदर का आंकड़ा बढ़ाना चाहती है और उसके लिए उस 30 प्रतिशत कॉर्पोरेट पर ही पैसा लगाती है। लेकिन आप ही बताएं कि किसी भी देश की तरक्की का पैमाना क्या होना चाहिए मीटर पर जीडीपी का चार से पांच होना या देश के हर नागरिक के पेट में रोटी पहुचना और सुविधाएं देना।
1993 से इस देश में आर्थिक सुधर के नाम पर जो नीतियां बनी उसे देश में एक ऐसा कॉर्पोरेट का बाजार खड़ा हो गया जिसके तले देश की सम्पति को सरकारी तंत्र के तहत ही लूटा गया।
देश की तस्वीर चाहे तो कोयले से ही बदल सकती थी। लेकिन कोयला खदानों में होने वाली ठकेदारी की लूट को जब पहली बार इंदिरा गांधी ने देखा तो 1972 में देश की तमाम कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण होने के बाद 1993 तक निजी हाथो में यह सम्पति नहीं दी गई। लेकिन 1993 क बाद यह मान लिया गया कि देश को आर्थिक गति देने के लिए कोयले को निजी हाथो में दे दिया जाये। और इस दौर में मनमोहन की यूपीए सरकार ने देश की कोयला खदानों को मिटटी के भाव आबंटित कर दिया। जिसमे से 175 खदानों का आबंटन रद्द कर दिया गया है। जिन भी कॉर्पोरेट घरानो की सरकारी तंत्र तक जान पहचान थी उन्होंने इस योजना का खूब लाभ उठाया। जूते चप्पल बनाने से लेकर मीडिया हाउस चलने वाली कंपनियों ने भी कोयला खदाने अपने नाम कर ली। जिनको कोयला निकलने का कोई अनुभव नहीं था या फिर जिनके पास पावर प्लांट तो क्या लाइसेंस भीं नहीं था उन्होंने कोयले की भारी मांग को देखते हुये कोयला खादान मुनाफा बनाने- कमाने के लिये अपने नाम करवा लिया। ऐसी 24 कंपनियां हैं, जिनके पास कोई पावर प्रोजेक्ट का नहीं है । लेकिन उन्हे खादान मिल गयी । 42 कंपनिया एसी है जिन्होंने खादानो की तरफ कभी झांका भी नहीं। लेकिन खादान अपने नाम कर खादान बेचने में लग गयी।
भारत में कोयले की अथाह सम्पति होने के बादभी देश भर में कोयले की कमी होने से बिजली का उत्पादन ठप्प होने की कगार पर है। बिजली की कमी से सीमेंट और स्टील उद्योग भी बुरे दौर से गुजर रहे हैं। अब बीते 21 बरस से लुटते इन कोयला खदानों को सुप्रीम कोर्ट ने डंडा चलाया है तो सवाल यह भी खड़ा हो गया है कि सरकारी नीति के तहत जिन निवेशकों ने करोड़ों की सम्पति इन प्रोजेक्ट में लगाई तो क्या उनका पैसा डूब जायेगा ? जिन बैंको ने पावर प्रोजेक्ट के नाम पर करोड़ों का कर्ज दिया उनका पैसा कहाँ से आएगा? उन्होंने तो सरकार की नीति के तहत ही भरोसा करके कर्ज दिया था। यानी इस दौर में सरकार की आर्थिक नीति ही सवालो के घेरे में आ गई है इसीलिए मोदी विज्ञानं भवन में निवेशकों को ढांढस बंधाने से नहीं चूके।
सवाल यह भी है कि आर्थिक सुधारों के नाम पर ट्रैक2 की जो पालिसी 1993 में मनमोहन ने अपनाई और वह नीति जिसमे अपने पारम्परिक उधोगों को ठोकर मारकर एफडीआई, पीपीपी मॉडल, बुलेट की रफ़्तार को ही तरजीह दी जा रही है तो यह रास्ता देश को चमका रहा है या इस देश की किसानी को ख़त्म कर समूचे भारत की पहचान को बदलना चाह रही है। क्या यह मान लिया जाए कई इस देश में विकास के नाम पर जो नीतियां बन रही है या जो बनती आई है वह विकास की चकाचौंध के नाम पर कार्पोरेट के लिए मात्र लूट का रास्ता खोलना है। क्योंकि इस देश में आज भी 60 प्रतिशत से ऊपर लोग कृषि पर निर्भर हैं और देश की जीडीपी में कृषि का योगदान मात्र 17 प्रतिशत भी मुश्किल से है जबकि आज़ादी से पहले देश की जीडीपी में 60 प्रतिशत से ऊपर कृषि का योगदान हुआ करता था। सरकार का सारा ध्यान विदेशी निवेश और कॉर्पोरेट पर है। वहीँ दूसरी तरफ आजादी के 68 बरस बाद भी देश का एक तबका रोटी कपडा और मकान दो का ही नारा लगा रहा है।
दरअसल इस देश में 1993 के बाद किसानो के लिए न तो कोई क्रांतिकारी कदम उठाया इसी का कारण है कि हजारों की संख्या में किसानो ने आत्महत्याएं की हैं। हर सरकार अपने कार्यकाल में विकासदर का आंकड़ा बढ़ाना चाहती है और उसके लिए उस 30 प्रतिशत कॉर्पोरेट पर ही पैसा लगाती है। लेकिन आप ही बताएं कि किसी भी देश की तरक्की का पैमाना क्या होना चाहिए मीटर पर जीडीपी का चार से पांच होना या देश के हर नागरिक के पेट में रोटी पहुचना और सुविधाएं देना।
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