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गुरुवार, 20 नवंबर 2014

सरकार के आर्थिक सुधारों में विरोधी डाल सकते हैं रोड़ा

एक तरफ सरकार ने खजाने में रेवेन्यू इकठ्ठा करने के लिए हर जुगाड़ तैयार कर दिया है क्योंकि सरकार जिस तरह अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए जोर लगा रही है और जीएसटी और किसान विकास पत्र जैसी रेवेन्यू इकट्टा करने वाली योजनाएं ला रही हैं। वही दूसरी तरफ यह चौकाने वाली बात जरूर हो सकती है - आपने उद्योगपति अडानी को ऑस्ट्रेलिया में प्रधानमंत्री  के साथ जरूर देखा होगा लेकिन यह नहीं सोचा होगा कि साथ थे क्यों ? दरअसल खबर आई है, अडानी अपना कारोबार अब ऑस्ट्रेलिया में भी फैला रहे हैं।
 किसान विकास पत्र

नारा मेक इन इंडिया का है इसलिए देश का पैसा मेक इन ऑस्ट्रेलिया हो तो बात कुछ चौकाने वाली जरूर लगती है। हालाँकि कहा कांग्रेस ने है आप शायद भरोषा न करें लेकिन असल बात यह है कि  अदाणी समूह को ऑस्ट्रेलिया में माइनिंग के लिए स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) ने 6200 करोड़ रुपये लोन दिया है। छह मल्टिनैशनल बैंकों ने देश के बाहर अदाणी के इस प्रॉजेक्ट को फाइनैंस करने से इनकार कर दिया, तब देश का पैसा ऑस्ट्रेलिया में लगाने का क्या औचित्य है।

 किसान विकास पत्र जिसमे  इस बचत योजना में निवेश किया गया धन आठ साल और चार महीने में दोगुना हो जाएगा। लेकिन आने वाले आठ साल तक पैसा वापस तो नहीं करना होगा इसलिए किसानो से पैसा मांगकर दुगना करने के लालच में खजाना भरने के मूड में है।  जब मार्किट में पहले ही इस तरह की कई योजनाएं पहले ही चलायी जा रही हैं। इसलिए सरकार की नई आर्थिक नीतियों में थोड़ा अनाड़ीपन जरूर दिख रहा।
 को लेकर रिजर्व बैंक ने साल 2011 में अपनी रिपोर्ट में कहा था कि इससे ब्लैक मनी छिपाने में मदद मिलेगी।  वहीँ सरकार के एक और आर्थिक सुधार के कदम, गुड्स एंड सर्विस टैक्स जैसे महत्वपूर्ण कर सुधार कानून को पास करने में अब राज्यसभा में कांग्रेस समेत कई भाजपा के विरोधी दल जो मोदी से खार खाए बैठे हैं रोड़ा डालने की तैयारी में हैं। कांग्रेस का साफ़ कहना है कि यूपीए सरकार भी जीएसटी लायी थी लेकिन भाजपा ने इसे मोदी की अगुवाई में  पास नहीं होने दिया था इसलिए अब कांग्रेस का GST पर रुख क्या होगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है।   

बुधवार, 12 नवंबर 2014

महाराष्ट्र में फिर शरद ऋतु

महाराष्ट्र में चुनाव प्रचार के दौरान  नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने कई बार टेलीविजन कैमरों के सामने कहा था कि एनसीपी के साथ सरकार बनाने  का तो सवाल ही नहीं उठता और एनसीपी  को नेचुरल कर्रप्ट पार्टी और न जाने क्या -क्या कहा था। महाराष्ट्र को एनसीपी ने किस तरह लूटा यह भी कई चुनावी मंचों पर कहा था। लेकिन संयोग से अब उसी महाराष्ट्र में बीजेपी एनसीपी की सरकार बनने जा रही है। महाराष्ट्र में भाजपा की इस सरकार गठन को अब क्या बीजेपी की हार और एनसीपी की जीत कहा जा सकता है ? क्योंकि अब बीजेपी एनसीपी के साथ मिलकर ही सरकार बनाएगी।  एनसीपी सत्ता से दूर नहीं रह सकती इसलिए उसने भाजपा को अपने जाल में फंसा लिया और बीजेपी सिर्फ देखती रह गई।  क्योंकि अब एनसीपी का कोई भी महाराष्ट्र में कुछ नहीं कर पायेगा।

शरद पंवार 
लेकिन चुनौती बीजेपी के सामने आ खड़ी हुई है। बीजेपी अब सरकार बनाते ही कई तरफ से महाराष्ट्र के राजनीतिक चक्रव्यू में फंसती नजर आ रही है। दरअसल समूचे महाराष्ट्र में बीजेपी  ने चुनाव प्रचार के दौरान जिस एनसीपी के इरीगेशन स्कैम और लवासा प्रजेक्ट के भ्रष्टाचार को किसानो की भावनाओ से जोड़कर जिक्र किया और यहाँ तक कहा कि सत्ता में आये तो इनको जेल तक डालेंगे। अब उसी एनसीपी की वैशाखी पर जब सरकार चलेगी तो बीजेपी यह काम कैसे कर पायेगी ? दूसरी बड़ी मुस्किल बीजेपी की खुद की है 90 के दौर से बीजेपी अलग विदर्भ के समर्थन में रही है लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान मोदी साहब ने कहा की जब तक पीएम हूँ महाराष्ट्र को टूटने नहीं दूंगा ऐसे में अब बीजेपी करेगी क्या ? देखना होगा।

और तीसरी बड़ी मुश्किल यह है कि दरअसल दिल्ली में जब कांग्रेस के समर्थन से आम आदमी पार्टी ने सरकार बनाई तो भाजपा ने आप पर भ्रष्टाचारियों के साथ सरकार बनाने का आरोप लगाया था। अब वही कारनामा भाजपा ने कर दिखाया है। महाराष्ट्र में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर तो जरूर उभरी है लेकिन शरद पवार के जाल से नहीं बच पाई। क्योंकि अब महाराष्ट्र में न सिर्फ अब एनसीपी के घोटाले दबे रह जायेंगे बल्कि कारपोरेशन भी एनसीपी के हाथों में सुरक्षित रहेगा  दरअसल महाराष्ट्र में बीजेपी, शिवसेना का गठबंधन हो सकता था शिवसेना तैयार भी थी लेकिन भाजपा के घमंड ने इस संभावना को ख़त्म कर दिया। यह महाराष्ट्र की राजनीति का अहम दौर है जब शिवसेना महाराष्ट्र में अपने अस्तित्त्व की लड़ाई लड़ रही है और यही कारण है कि शिवसेना ने इसे बचाने  की कोशिश की लेकिन भाजपा ने इसे नाकमियाब कर दिया शिवसेना अगर सरकार में शामिल होती तो शायद भाजपा सरकार की चकाचौंध में गायब हो जाती इस बात को उद्धव ठाकरे अच्छी तरह जानते है इसीलिए शिवसेना ने सरकार में शामिल होने के लिए अहम पदों की मांग कर दी। लेकिन भाजपा के सामने भी दोहरी मुस्किल थी क्योंकि उन्होंने जनता से जो वादा किया था जिसमे अलग विदर्भ का मुद्दा भी था और शिवसेना इसके खिलाफ थी ऐसे में भाजपा सरकार के सरे अहम पद अपने पास रखना चाहती थी। लेकिन अब विपक्ष में रहकर शिवसेना को महाराष्ट्र की जनता के सामने रखने के लिए मुद्दा मिल गया है और शायद अपनी मराठी मानुष की थ्योरी के तले खुद को नए सिरे से ज़माने और खोई हुई पहचान को पाने का मौका मिल जायेगा  अब शिवसेना का मुद्दा यही होगा कि जिस एनसीपी ने महाराष्ट्र को लूटा और जनता ने भाजपा पर भरोषा किया अब वही भाजपा उसे एनसीपी के साथ सरकार चला रही है। लेकिन उससे भी बड़ा सवाल यह है कि जिस मोदी ने सबसे अलग राजनीति करके अच्छे दिन लेन का वाद किया, कांग्रेस को अछूत बताया अब भाजपा,कांग्रेस में क्या अंतर रह जायेगा। पहले कोंग्रस एनसीपी की सरकार थी अब भाजपा, एनसीपी  की सरकार होगी।             

शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

मेक इन इंडिया की नीति गरीबी मिटा पायेगी ?

जो आर्थिक नीति मनमोहन सिंह ने 1991 के बाद देश में चलाई जो कि अमेरिका ब्रिटेन की तर्ज पर  थी। जिसमे एफडीआई था, पीपी मॉडल था, हर सेक्टर में विदेशी निवेश था। उसने  भारत में  कॉर्पोरेट की चकाचौंध और तकनीक को तो बढ़ाया और सायद जीडीपी के आंकड़े भी बढे लेकिन उसने भारत के लघु उद्योगों को भी जड़ से समाप्त कर दिया। जब से भारत में नई आर्थिक नीतियां लागू हुई तबसे किसानो के लिए सरकार के आम बजट से पैसा काम होता गया। किसान जिन्दा रहे या न रहे किसी ने सोचा नहीं। अब मोदी भी मनमोहन की उसी खींची लकीर को पकडे हुए हैं। और दुनियाभर में घूम-घूम कर पैसा मांग रहे हैं भारत में अपने उद्योग लगाने को कह रहे हैं। लेकिन सरकारों को यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत अमेरिका ब्रिटेन की तरह विकसित नहीं है इस नीति की दो योजनाएं कोयला घोटाले और 2जी घोटाले के रूप में फेल हो चुकी हैं।  कोर्ट ने कहा है कि सरकार कई इस आर्थिक नीति में ही खामी थी। तो क्या यह मान लिया जाए कि सरकारें जो नीतिया विकास के नाम पर बना रही है वह मात्र लूट का साधन है।
मोदी ने लांच किया मेक इन इंडिया 

 यहाँ आज भी आधी से ज्यादा आबादी रोटी पानी के लिए ही तरस रही है। इससे जीडीपी के आंकड़े तो जरूर बढ़ सकते है लेकिन गरीबी नहीं। सरकारें विकसित देशो की आर्थिक नीतियों की नक़ल तो कर सकती हैं लेकिन इस नई आर्थिक नीति को ऑपरेट नहीं कर पा रही है।  आधा ज्ञान हमेशा खरतरनक होता है। मनमोहन सिंह दुनिया के बड़े अर्थशास्त्री माने जाते हैं लेकिन विकसित अर्थव्यवस्था के मॉडल को भारत में लागू करने में इसीलिए फेल हो गए। तरक्की के लिए स्पेक्ट्रम वितरित किये लेकिन लूट मच गई, देश के पावर सेक्टर बढ़ने के लिए कोयले का निजीकरण किया लेकिन कॉर्पोरेट सारी सरकारी सम्पदा को चट कर गया। क्या मनमोहन सरकार को इस बात का ज्ञान नहीं रहा होगा कि एक -एक रूपये के लिए जो कारोबारी गरीबों को नहीं छोड़ते अगर उनको देश की अथाह सम्पदा लूटने की खुली छूट दी जाए तो वो ईमानदारी दिखाएंगे।  हुआ भी यही कोयला तो विकास के नाम पर निकला नहीं लेकिन ये कंपनियां मालामाल जरूर हो गई।  देश में बिजली की कीमतें आसमान छूने लगी कोयले की इतनी कमी कि विदेशो से आयत करना पड़े और देश अँधेरे में डूबने की कगार पर हो ऐसी विकासीय अर्थव्यवस्था क्या इस देश का भला करेगी।  और क्या गारंटी है कि जिस मेक इन इंडिया के नारे को मोदी लगा रहे हैं दुनिया भर को कहा जा रहा है कि भारत में आओ अपना सामान भारत में बनाओ और बेचो उसमे लूट नहीं मचेगी। याद रहे सोने की चिड़िया कहे जाने वाले भारत को व्यापार के नाम पर ही विदेशियों ने गुलाम बना दिया था।    

गुरुवार, 25 सितंबर 2014

सरकार की आर्थिक नीतियों पर कैसे भरोसा किया जाए

आज अमेरिका जाने से पहले दिल्ली के विज्ञानं भवन में प्रधानमंत्री मोदी निवेशकों को विश्वास दिलाने से नहीं चूके कि उनका पैसा डूबने नहीं दिया जायेगा। आखिर मोदी को यह कहने की जरूरत क्यों पड़ी? अगर सरकारी नीति के तहत कोई नवेशक पैसा लगाता है उसे डर किस बात का है। लेकिन सच यही है पहले सीएजी ने  कोयला आबंटन पर सवाल उठाया और अब सुप्रीम कोर्ट ने  1993 से 2010 में  आबंटित की गई 2014 कोल आबंटन को रद्द कर सरकारी नीति पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं।  और कहा कि इस नीति के तहत सरकार और निजी कंपनियों के खेल में देश को एक लाख 86 हजार करोड़ का चूना लगा है। अब सुप्रीम कोर्ट  ने कहा है की  निजी कंपनियां अपना बोरिया -बिस्तर बांध लें यानी अब निजी कंपनियां कोयला नहीं निकाल पाएगी। यानि आर्थिक सुधार के लिए जो नीति आज बन रही है वह आने वाले समय में गलत हो सकती है।  ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले निवेशकों की चिता बढ़ा दी है कि आने वाले समय में कही उनका पैसा डूब न जाए।  

 1993 से इस देश में आर्थिक सुधर के नाम पर जो नीतियां बनी उसे देश में एक ऐसा कॉर्पोरेट का बाजार खड़ा हो गया जिसके तले देश की सम्पति को सरकारी तंत्र के तहत ही लूटा गया।
 देश की तस्वीर चाहे तो कोयले से ही बदल सकती थी। लेकिन कोयला खदानों में  होने वाली ठकेदारी की लूट को जब पहली बार इंदिरा गांधी ने देखा तो 1972 में देश की तमाम कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण होने के बाद 1993 तक निजी हाथो में यह सम्पति नहीं दी गई।  लेकिन 1993 क बाद यह मान लिया गया कि देश को आर्थिक गति देने के लिए कोयले को निजी हाथो में दे दिया जाये। और इस दौर में मनमोहन की यूपीए सरकार ने देश की कोयला खदानों को मिटटी के भाव आबंटित कर दिया। जिसमे से 175 खदानों का आबंटन रद्द कर दिया गया है। जिन भी कॉर्पोरेट घरानो की सरकारी तंत्र तक जान पहचान थी उन्होंने इस योजना का खूब लाभ उठाया।  जूते चप्पल बनाने से लेकर मीडिया हाउस चलने वाली कंपनियों ने भी कोयला खदाने अपने नाम कर ली। जिनको कोयला निकलने का कोई अनुभव नहीं था या फिर जिनके पास पावर प्लांट तो क्या लाइसेंस भीं नहीं था  उन्होंने कोयले की भारी मांग को देखते हुये कोयला खादान मुनाफा बनाने- कमाने के लिये अपने नाम करवा लिया। ऐसी 24 कंपनियां हैं, जिनके पास कोई पावर प्रोजेक्ट का नहीं है । लेकिन उन्हे खादान मिल गयी । 42 कंपनिया एसी है जिन्होंने खादानो की तरफ कभी झांका भी नहीं। लेकिन खादान अपने नाम कर खादान बेचने में लग गयी।
भारत में कोयले की अथाह सम्पति होने के बादभी देश भर में कोयले की कमी होने से बिजली का उत्पादन ठप्प होने की कगार पर है। बिजली की कमी से सीमेंट और स्टील उद्योग भी बुरे दौर से गुजर रहे हैं। अब बीते 21 बरस से लुटते इन कोयला खदानों को सुप्रीम कोर्ट ने डंडा चलाया है तो सवाल  यह भी खड़ा हो गया है कि सरकारी नीति के तहत जिन निवेशकों ने करोड़ों की सम्पति इन प्रोजेक्ट में लगाई तो क्या उनका पैसा डूब जायेगा ?  जिन बैंको ने पावर प्रोजेक्ट के नाम पर करोड़ों का कर्ज दिया उनका पैसा कहाँ से आएगा?  उन्होंने तो सरकार की नीति के तहत ही भरोसा करके कर्ज दिया था। यानी इस दौर में सरकार की आर्थिक नीति ही सवालो के घेरे में आ गई है इसीलिए मोदी विज्ञानं भवन में निवेशकों को ढांढस बंधाने से नहीं चूके।
सवाल यह भी है कि आर्थिक सुधारों के  नाम पर ट्रैक2 की जो पालिसी 1993 में मनमोहन ने अपनाई और वह नीति जिसमे अपने पारम्परिक उधोगों को ठोकर मारकर एफडीआई, पीपीपी मॉडल, बुलेट की रफ़्तार को ही तरजीह दी जा रही है तो यह रास्ता देश को चमका रहा है या इस देश की किसानी को ख़त्म कर समूचे भारत की पहचान को बदलना चाह रही है। क्या यह मान लिया जाए कई इस देश में विकास के नाम पर जो नीतियां बन रही है या जो बनती आई है वह विकास की चकाचौंध के नाम पर कार्पोरेट के लिए मात्र लूट का रास्ता खोलना है। क्योंकि इस देश में आज भी 60 प्रतिशत से ऊपर लोग कृषि पर निर्भर हैं और देश की जीडीपी में कृषि का योगदान मात्र 17 प्रतिशत भी मुश्किल से है जबकि आज़ादी से पहले देश की जीडीपी में 60 प्रतिशत से ऊपर कृषि का योगदान हुआ करता था।  सरकार का सारा ध्यान विदेशी निवेश और कॉर्पोरेट पर है। वहीँ दूसरी तरफ आजादी के 68 बरस बाद भी देश का एक तबका रोटी कपडा और मकान दो का ही नारा लगा रहा है।
 दरअसल इस देश में 1993 के बाद किसानो के लिए न तो कोई क्रांतिकारी कदम उठाया इसी का कारण है कि हजारों की संख्या में किसानो ने आत्महत्याएं की हैं। हर सरकार अपने कार्यकाल में विकासदर का आंकड़ा बढ़ाना चाहती है और उसके लिए उस 30 प्रतिशत कॉर्पोरेट पर ही पैसा लगाती है। लेकिन आप ही  बताएं कि किसी भी देश की तरक्की का पैमाना क्या होना चाहिए  मीटर पर जीडीपी का चार से पांच होना या देश के हर नागरिक के पेट में रोटी पहुचना और सुविधाएं देना।



बुधवार, 24 सितंबर 2014

मंगल पर भारत के कदम, और एक अजीब सी कल्पना

"जब ज़ीरो दिया मेरे भारत ने.....देता न दशमलव भारत तो चाँद पे जाना मुश्किल था , धरती और चांद की दूरी का अंदाज़ा लगाना मुश्किल था .......भगवान करे यह आगे बढे आगे बढे बढ़ता ही रहे 

 24 सितम्बर 2014 को सुबह 7 बज कर 17 मिनट पर पीएसऍलवी सी-25  के जैसे ही मंगल की कक्षा में स्थापित होने के सिग्नल श्रीहरिकोटा के सतीश भवन में व्याकुलता से बैठे वैज्ञानिकों तक पहुंचे तो भवन तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।  भारत ने एक ऐसी उपलब्धि  हासिल कर ली जो दुनिया के कई विकसित देश तक नहीं कर पाये। भारत  दुनिया का ऐसा पहला देश बन गया जिसने अपने पहले ही प्रयास में मंगल पर अपना डेरा जमा लिया। और एशिया का ऐसा पहला देश जो मंगल पर पंहुचा है।  इससे पहले चीन, जापान भी प्रयास कर चुके हैं लेकिन असफल रहे। एक सबसे महत्वपूर्ण बात यह भी है कि इस मंगल मिशन में भारत ने मात्र 450 करोड़ (करीब 6 करोड़ 90 लाख डॉलर)  रूपये खर्च करके कामयाबी हासिल की है इतनी रकम तो एक हॉलीवुड की फिल्म बनाने में ही खर्च हो जाते हैं।

मंगल पर भारत के कदम 


 वैसे तो भारतीय वैज्ञानिको ने ज़ीरो, दशमलव,जैसे  दुनिया को कई अविष्कारों से रूबरू करवाया है लेकिन यह कामयाबी इसलिए खास है क्योंकि पृथ्वी के साथ - साथ ऐसे कई ग्रह हैं जिनके बारे में जानने का प्रयास दुनिया भर के वैज्ञानिक कई वर्षो से कर रहे हैं कि क्या इन ग्रहो में भी पृथ्वी जैसा जीवन है ? क्या इन ग्रहों में भी मनुष्य की तरह कोई प्राणी होगा ? इन ग्रहों के अंदर की दुनिया के बारे में जानने की उत्सुकता तब और भी बढ़ जाती है जब फिल्मो के जरिये ऐसे कई वैज्ञानिक रहष्यों का ज़िक्र किया जाता जाता जिसमे उड़नतस्तरी या दुसरे ग्रह के प्राणियों का पृथ्वी पर आना होता है। यह जानने की उत्सुकता बढ़ जाती है कि क्या हम कभी इन दूसरी दुनिया के प्राणियों से कम्युनिकेट कर पाएंगे। काश ऐसा हो पाता जब हम दूसरे ग्रहो के निवासियों से रूबरू हो पाते, कि क्या उन ग्रहो की दुनिया में भी फिल्मे बनती होगी। क्या उन ग्रहों में कोई क्रिकेट जैसा खेल खेला जाता होगा। क्या वहां भी नेता के घोटाले होते होंगे।  क्या वो भी मोबाइल या कंप्यूटर जैसी किसी तकनीक का इस्तेमाल करते होंगे।

पीएसऍलवी सी-25 मंगल की कक्षा में 

 क्या उन ग्रहो के लोग भी पृथ्वी और हमारे बारे में जानने के उत्सुक होंगे। आप को यह बता दें कि पृथ्वी 30 किमी प्रति सेकंड और मंगल 24 किमी प्रति सेकंड की रफ्तार से दौड़ रहा था। आप जानते हैं कि जिन कक्षाओं (आर्बिट्स) में दोनों ग्रह सूरज की परिक्रमा कर रहे हैं, वे आपस में पास-पास हैं। पृथ्वी की कक्षा अंदर पड़ती है, मंगल की बाहर। हरेक 780 दिनों के बाद पृथ्वी मंगल को ओवरटेक करती है। पृथ्वी से चलकर मंगल के निकट पहुंचने वाले किसी यान के पास चार विकल्प होते हैं। एक, वह मंगल के पास से होता हुआ निकल जाए और अंतरिक्ष में भटक जाए। दो, वह अपनी स्पीड को इतना कम कर ले कि मंगल की ग्रैविटी उसे पकड़ ले और वह मंगल के गिर्द घूमने लगे। तीन, वह मंगल से टकरा कर उस पर क्रैश लैंड कर जाए। चार, टकराने से पहले उल्टी दिशा में जोर लगा कर वह मंगल की सतह पर सॉफ्ट लैंड कर जाए। इसरो ने अपने मंगलयान के लिए नंबर दो वाले विकल्प को चुना है। यानी, मंगलयान मंगल पर उतरेगा नहीं, केवल मंगल के आसमान में एक नकली चांद बन कर उसकी परिक्रमा करने लगेगा और कई महीनों के लिए उस दुनिया में तांक-झांक करता रहेगा।

गुरुवार, 14 अगस्त 2014

गोल्ड तस्करी के चाचा चौधरी

सुनील रावत ( रेवेन्यू न्यूज़ के अगस्त अंक में प्रकाशित)

चाचा चैधरी, जी हाँ ! कंप्यूटर से तेज दिमाग वाले चाचा चैधरी का चरित्रा कार्टून काॅमिक्स के जरिये गढ़ने वाले प्राण कुमार शर्मा नहीं रहे। कंप्यूटर से तेज दिमाग वाले अपने कार्टून चाचा चैधरी और साबू के जरिये डायमंड और गोल्ड़ तस्करों के छक्के छुड़ाने वाले प्राण के निधन के साथ ही मानो तस्करों का सुनहरा दौर फिर लौट आया है और अब तस्कर ही चाचा चौधरी बन सरकार को चकमा दे रहे हैं। सरकार ने सोने पर बंदिश क्या लगाई कि 70 के दशक का तस्करी साम्राज्य लौट आया। दरअसल भारतीयों की सोने की ललक ने पूरे दक्षिण एशिया में तस्करों का जाल खड़ा कर दिया है साथ ही रिश्वत लेने की ताक में ड्राई-पोर्टों से लेकर एयरपोर्टों तक बैठे भ्रष्ट अफसरों को भी छप्पर-फाड़ के कमाने का मौका दे दिया है। इस बात का अंदाजा आप डायरेक्टरेट आॅफ रेवेन्यू इंटेलिजेंस के ताजा आंकड़ों के से लगा सकते है। इस साल जनवरी से मई के बीच करीब 400 किलो सोना जब्त किया जा चुका है जोकि पिछले वर्ष के मुकाबले चार गुना ज्यादा है। वित्त वर्ष 2013-14 में तस्करी के 148 मामले सामने आए और लगभग 245 करोड़ रुपये सोने की जब्ती की गई। वहीं वित्त वर्ष 2012-13 में केवल 40 मामले सामने आए थे और विभाग ने 45 करोड़ रुपये का सोना जब्त किया था। सूत्रों के मुताबिक इस साल जनवरी से मई के बीच 3000 किलो तक सोना हर महीने अवैध रुप से भारत लाया जा रहा है, जोकि पिछले साल के इस समय के मुकाबले 450 फीसदी ज्यादा है, लेकिन सवाल इन सबके बीच यह भी है कि जब देश के तमाम एयरपोर्टों पर एक्स-रे मशीन से लेकर स्कैन और तमाम अत्याधुनिक सुविधाएं मौजूद है तो तस्करी का यह आंकड़ा इस हद तक कैसे जा पहुंचा है ? जब तस्करों के सामने पूरा कस्टम विभाग और इनके पास मौजूद आधुनिक सुविधाओं से लैस टेक्नाॅलाॅजी ही फेल है तो मोटे वेतनमान पाने वाले इन अफसरों की जरूरत ही कहां है।
जबकि इसके पीछे का एक सच यह भी है कि देश के कस्टम विभाग के भ्रष्ट अफसरों से लेकर तमाम इम्पोर्ट, एक्सपोर्ट से जुड़े लोग तस्करों से कदमताल करके इस मौके को हाथ से नहीं जाने देना चाहते हैं। वैसे तो अपने देश में सोने की तस्करी का इतिहास मनमोहन या मोदी के दौर का नहीं है यह नेहरू और अंग्रेजी हुकूमत में भी चरम पर था लेकिन फर्क आज की तस्करी का सच यह है कि तब तस्कर सरकारी पहरेदारों को चकमा देते थे और आज पहरेदार ही देश को धोखा देने लगे हैं।
देश के दो एयरपोर्टों दिल्ली का आईजीआई एयरपोर्ट और मुंबई शिवाजी एयरपोर्ट पर तस्करों का तांता लगा रहा लेकिन चैन्नई, कोच्चि, और अहमदाबाद एयरपोर्टों पर भी खाड़ी देशों से कुछ कम हाजी मस्तान नही उतरे। सूत्रों की माने तो इन एयरपोर्टों पर सरकारी सेवा करने वाले अधिकारी से लेकर सफाई कर्मचारियों तक तस्करों की सेवा में लगे हुए हैं। कई मामलों में देखा गया कि तस्कर एयरपोर्ट कीे ऐसे जगहों पर सोना रख देते है जो सीसीटीवी की पहुँच से दूर रहते है और यह सोना यहाँ काम करने वाले कर्मचारियों द्वारा तस्करों तक पहुंचाया जाता है। इसी का कारण है कि एयरपोर्ट के शौचालयों से लगातार सोना जब्त किया जा रहा है। पिछले समय में जितने मामले पकडे गए उनमे तस्करों ने ज्यादातर हवाई मार्ग का इस्तेमाल किया लेकिन ऐसा नहीं है कि तस्करी हवाई मार्ग से ही हो रही है। डीआरआई को एक ऐसे मामले में जिस खबर को विस्तृत रूप से रेवेन्यू न्यूज़ ने छापा था कि आईसीडी तुगलकाबाद में 4 कंटेनरों से शराब, सिगरेट, तथा चाइनीज ब्रांड टायर पर करोड़ों की कस्टम ड्यूटी चोरी पकड़ी गई थी। अब डीआरआई को गुप्त सूचना मिली है कि उस कंटेनर में सोने की तस्करी भी की जा रही थी खैर डीआरआई इस पूरे मामले की तहकीकात कर रही है लेकिन यह बात तो साफ है कि देश का ऐसा कोई भी एयरपोर्ट या ड्राईपोर्ट नही जहां तस्करी का खेल न चल रहा हो। सी.ए.डी पर भले ही सोने की पाबंधी का लाभ मिला हो लेकिन अवैध तरीके से आने वाले इस सोने ने सोने पर लगने वाली इम्पोर्ट ड्यूटी के असर को बेअसर कर दिया है क्योंकि इम्पोर्ट से नहीं लेकिन तस्करी का सोना भारतीय सोना व्यापारियों के लिए विकल्प बना हुआ है। कस्टम विभाग और राजस्व चोरी पकड़ने वाली खुफिया एजेंसी (डीआरआई) डायरेक्टरेट आॅफ रेवेन्यू इंटेलिजेंस कीे नाक में भी तस्करों नें दम कर दिया है। सोने की तस्करी का आलम इतना भयावह है कि पिछले 5 महीनों में डायरेक्टरेट आॅफ रेवेन्यू इंटेलिजेंस ने करीब 400 किलो सोना जब्त किया है लेकिन तस्करी किया गया सोना यानि जो पकड़ा नहीं गया उस सोने का आंकड़ा जब्ती से कहीं ज्यादा है और तस्करी का मात्रा एक प्रतिशत सोना ही पकड़ा जाता है।

शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

गांधी परिवार के त्याग को नटवर की चुनौती


एक शख्स गांधी नेहरू परिवार के साथ 50 से भी ज्यादा बरस सबसे  निकट रहता है और और गांधी परिवार को सोनिया गांधी से भी पहले से जानता समझता हो, और अगर वही शख्स सोनिया गांधी की देश के प्रति नियत को अपनी किताब वन लाइफ इज़ नॉट एनफ  (One life is not Enough) के जरिये झूठा कह दे तो बात गंभीर जरूर हो जाती है क्योंकि माना जाता है कांग्रेस का मतलब ही गांधी परिवार है और गांधी परिवार नहीं तो कांग्रेस है ही नहीं। अर्थात कांग्रेस का गांधी परिवार ऑक्सीज़न है
नटवर की किताब से सोनिया बैकफुट पर 
दरअसल नटवर सिंह ने अपनी किताब में इस बात का खुलासा किया है की सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री का पद अपने त्याग के कारण नहीं बल्कि राहुल गांधी की चेतावनी के कारण नहीं संभाला क्योंकि राहुल गांधी नहीं चाहते थे कि मेरे दादी और पापा की तरह मेरी माँ की भी हत्या हो जाए। नटवर सिंह के अनुसार राहुल गांधी ने यहाँ तक कह डाला था कि अगर वह प्रधानमंत्री का पद स्वीकार करती है तो वो किसी भी हद तक जा सकते हैं। लेकिन अगर उस दौर को याद करें तो सोनिया गांधी के इस फैसले को  कोंग्रेसियों ने यह कहकर गर्व महसूस किया था कि सोनिया गांधी को पद का लालच नहीं है और इसे त्याग बताया था। इसी का असर है की कांग्रेस लगातार देश में गांधी परिवार के नाम पर सत्ता पाती आई है। माना जाता है कि कांग्रेस का मतलब ही गांधी परिवार है और अगर कांग्रेस से गांधी परिवार को अलग कर दिया जाए तो कांग्रेस महत्व हीं नहीं है।
वैसे तो  पूर्व कोंग्रेसी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सलाहकार संजय बारु भी अपनी किताब दी एक्सीडेंटल  प्राइम  मिनिस्टर में कांग्रेस सरकार पर आरोप लगा चुके है कि किस तरह मनमोहन सिंह के पीएम रहते हुए सोनिया गांधी सारे फैसले लिया करती थी।  लेकिन नटवर सिंह की किताब को लेकर सोनिया गांधी इसलिए भी तिलमिला उठी क्योंकि 50 बरस से नटवर सिंह नेहरू गांधी के दौर से परिवार के करीब रहे हैं और कांग्रेस सरकार में विदेश मंत्री भी रहे हैं और अगर कोई इतना करीबी गांधी परिवार की उस त्याग को अपनी किताब के जरिये झूठा साबित कर दे जिसके आसरे समूचे देश में कांग्रेस का महत्व है। हालाँकि नटवर सिंह ने अपनी किताब one life is not enough में नेहरू द्वारा सुरक्षा परिषद की सदस्यता ठुकराये जाने और राजीव गांधी की श्रीलंका में फेल डिप्लोमेसी का भी जकर किया है लेकिन सवाल सोनिया का इसलिए भी बड़ा है क्योंकि वर्तमान समय में कांग्रेस की धार लगातार कुंद होती जा रही है और गांधी परिवार ही एक ऐसी लकीर है जो कांग्रेस का ऑक्सीज़न बना हुआ है ऐसे में गांधी परिवार के देश को लेकर त्याग झूठा बताना कांग्रेस के लिए बड़ा झटका है।
लेकिन आगे का रास्ता अब आखिर है क्या ? नटवर सिंह की किताब ने राहुल गांधी को अब सीधे तौर पर जिम्मेदारी लेने को विवश कर दिया है जिसको लेने से वह हमेशा बचते रहे। यही रास्ता अब नटवर सिंह के खुलासे का सही जवाब होगा।

शनिवार, 26 जुलाई 2014

298 यात्रियों सहित मलबे में तब्दील हुआ मलेशियाई विमान

नीदरलैंड्स की राजधानी एम्स्टर्डम से कुआलालम्पुर जा रहे मलेशियाई विमान बोइंग 777 को यूक्रेन के अलगाववादियों ने मार गिराया, इस घटना की सयुक्तराष्ट्र और अमेरिका ने कड़ी निंदा की है। कहा जा रहा है कि यूक्रेन के इन सेपेरिस्टों को रूस लगातार मदद करता आया है।  इसलिए इस घटना के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने रूस को जिम्मेदार ठहराया। मलेशियाई विमान को जिस बक मिशाइल से गिराया गया वह हवा में कई हज़ार किलोमीटर तक मार कर सकने वाली मिशाइल  बताई जा रही है।  तो सवाल यही उठ रहा है की आखिर विद्रोहियों के पास यह मिशाइल आई कहाँ से, क्योंकि इस तरह के हथियार तो रूसी ही बनाता है।  दरअसल कुछ समय पहले चीन ने अपनी विस्तार वादी नीति के तहत यूक्रेन में कुछ जगह ली है जिसको की रूस सही नहीं मान रहा है।  इसलिए वह यूक्रेन के क्रीमिया स्थित विद्रोहियों को लगातार समर्थ देता आया है। आगे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में इस घटना को लेकर क्या होगा? क्या क्रेमियां में रूसी समर्थित विद्रोहियों पर प्रतिबन्ध लगेगा देखना होगा।     

मार गिराये गए मलेशियाई विमान का मलबा 

 

उत्तराखंड उपचुनाव में भाजपा की हार मोदी के लिए चेतावनी

(दैनिक जनवाणी उत्तराखंड से साभार )
खोखले मंसूबों में पंख नहीं लगते। लुभावनी घोषणाओं के नखलिस्तान में उम्मीदों की बारिश नहीं होती। उत्तराखंड में विधानसभा  की तीन सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजों ने साफ कर दिया है कि लुभावने सब्जबाग की उम्र लम्बी नहीं होती है। लोकसभा चुनाव से पूर्व भाजपा ने जितने भी  दावे किए और जो भी घोषणाएं की वह अभी तक घोषणाओं से आगे नहीं बढ़ पाई है। कई मामलों में तो मोदी सरकार समस्याओ के सामने दंडवत नजर आई। महंगाई भगाओ नाम की जिस नाव पर सवार होकर भाजपा ने चुनावी समंदर को पार किया उसी नाव में मोदी सरकार ने सत्तर छेद कर दिए।

 नतीजा सामने है। केन्द्र में मोदी की सरकार बनने के बाद देश में पहली बार विधानसभा  के तीन सीटों पर उपचुनाव हुए। भाजपा-कांग्रेस के बीच सीधी टक्कर हुई और देवभूमि उत्तराखंड की सरजमीं इसका गवाह बनी। इसके बावजूद कि गत लोकसभा  चुनाव में इन सीटों पर भाजपा ने उल्लेखनीय बढ़त बनाई थी, महज ढाई महीने के बाद विस चुनाव हुए तो बीजेपी का पत्ता साफ हो गया। दरअसल यह सब उस राज्य में हुआ है जहां भाजपा खुद को ज्यादा सहज महसूस करती है। एनडीए के शासनकाल में ही उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ था। यहां पहली निर्वाचित सरकार भी  भाजपा की ही बनी थी। उसी उत्तराखंड के मतदाताओं ने भाजपा को खारिज कर दिया। ये नतीजे भाजपा के लिए संदेश भी  है और सबक भी । वह किसी भ्रम में ना रहे। उत्तराखंड के चुनावी नतीजे ने साफ कर दिया है कि सिर्फ मोदी लहर पर सवार होकर चुनाव नहीं जीते जा सकते। इस छोटे से प्रदेश ने भाजपा को एक बड़ा संदेश दिया है। भाजपा को समझना होगा कि राज्यों की जरूरतें, वहां के वाशिंदों की अपेक्षाएं और उम्मीदें अलग होती है।यह बात शीशे की तरह साफ हो गयी है कि सिर्फ नमो-नमो के सहारे जनता के दिलों पर राज नहीं किया जा सकता। यदि भाजपा को मोदी लहर पर सवार होकर ही राजनीति करनी है ऐसे में भाजपा को न केवल हाल में होने वाले विधानसभा  के चुनावों के लिए ठोस रणनीति बनानी होगी बल्कि  इस बात का प्रयास भी करना होगा कि लोस चुनाव से पूर्व किए गए वायदों को पूरा किया जाए। आगामी कुछ महीनों में बिहार समेत कई प्रदेशों में विधानसभा  का चुनाव प्रस्तावित है। ये वो राज्य हैं जहां भाजपा की सरकार नहीं है। इसके साथ ही उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और गोवा की विधानसभा का आधा कार्यकाल बीत चुका है। यानी दो साल बाद इन राज्यों में भी चुनावी बिगुल बजना है। भाजपा को यदि इन तमाम राज्यों में जीत दर्ज करानी है तो उसे अपनी रणनीति बदलनी होगी। सब्जबाग दिखाकर जनता को लुभाने का वक्त अब भाजपा के लिए खत्म हो चुका है। उसे अब जमीन से जुड़ना होगा और जनता तक पहुंचना होगा। वह भी आश्वासनों के साथ नहीं बल्कि विकास की सुहानी तस्वीरों के साथ। पुरानी कहावत है, काम होने से ज्यादा आवश्यक है कि लोगों को यह महसूस हो कि काम हो रहा है। भाजपा ने जो दावे किए और जो वायदे किए उन्हें लेकर एक पल के लिए भी  नहीं लगा है कि उन वायदों पर अमल हो रहा है या भाजपा की ऐसी मंशा है। भाजपा की रणनीति से ऐसा आभास हो रहा है कि वह सिर्फ कांग्रेस को कोसकर सत्ता का सुख भोगना चाहती है। इससे काम नहीं चलेगा।
भाजपा चाहे तो हरीश रावत से यह सबक सीख सकती है। वह चाहे सीएम का सरकारी आवास छोड़कर बीजापुर गेस्ट हाउस में रहने का फैसला हो या फिर शपथ ग्रहण के तत्काल बाद आपदा प्रभावित क्षेत्रों का मैराथन भ्रमण हो।
हरीश रावत ने साबित किया कि पहाड़ और पहाड़ के वाशिंदों का दर्द उनका अपना दर्द है। गर्दन की चोट के कारण एम्स में भर्ती हरीश रावत अपना नामांकन करने तक के लिए प्रदेश में नहीं आए। यहां तक कि उन्होंने एक दिन भी  चुनाव प्रचार में भाग नहीं लिया। अलबत्ता जब उन्हें पता चला कि पहाड़ों पर लगातार बारिश हो रही है और सूबे में पिछले साल जैसे हालात पैदा हो रहे हैं तो वह अपनी बीमारी को भूलकर सीधे देहरादून दौड़े चले आए। हरीश के इस फैसले के पीछे उनकी सियासी रणनीति जो भी  रही हो, जनता ने यही समझा कि यह आदमी उनके बीच का है। इस हार में भाजपा के लिए भी संदेश है। संदेश यह है कि बिना मजबूत नेतृत्व के चुनावी रण में जनता के बीच ठहरना मुश्किल है। जीत हासिल करने के लिए मजबूत नेतृत्व बेहद जरूरी है। नरेन्द्र मोदी में संभावना दिखी तो जनता ने उन्हें हाथों हाथ लिया। भाजपा को यदि लम्बे समय तक खुद को राजनीति में स्थापित रखना है तो राज्यों में उसे अपना मजबूत नेतृत्व तैयार करना होगा।

बुधवार, 9 अप्रैल 2014

गवर्नेंस या मुसलमान बनाम हिन्दू

देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तरप्रदेश लोकसभा की 80 सीटें, हर कोई जानता है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से ही होकर जाता है। दरअसल 2014  के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश पर हर कोई सिर्फ इसलिए भी टकटकी लगाए नहीं बैठा है क्योंकि, इस चुनाव में नायक तौर पर पेश किये जा रहे मोदी और केजरीवाल, उत्तर प्रदेश की ही जमीन से टकरा रहे हैं बल्कि इसलिए भी क्योंकि उत्तरप्रदेश की पूरी लड़ाई हिन्दू बनाम मुसलमान हो चुकी है और अब इस टकराव का ऐलान मुजफरनगर दंगो के परिणाम स्वरुप खुले  तौर पर किया जा रहा है। देवबंद में जमीयत उलेमा-ए-हिंद के मुखिया मोहम्मद अरशद मदनी जिस बात का जिक्र कर गए कि भाजपा अगर सत्ता में आ गयी तो देश को बांट देगी इसलिए भाजपा को हराने के लिए गोलबंद हो जाओ।

सपा, बसपा, कांग्रेस को आगे बढ़ाओ लेकिन भाजपा और मोदी को रोको। उसका एक मतलब यह भी निकलता है कि उत्तर प्रदेश में मुस्लिम भाजपा के खिलाफ एकजुट हैं तो अन्य पार्टियों के हिन्दू वोटरों का धु्रवीकरण भी भाजपा में जमकर होगा। क्योंकि जब जब माइनाॅरिटी और मज्यूरिटी को बांटा गया है फायदा बहुसंख्यकों का ही हुआ है 2002 के बाद गुजरात इसका उदाहरण मान सकते हैं। इन सबके बावजूद उत्तरप्रदेश में अगर हिन्दू मुस्लिम समीकरण खुलकर सामने आते हैं तो जातीय समीकरण टूटेंगे अर्थात दलित, जाट. इत्यादि वोट भाजपा के ही मिलेंगे और भाजपा को उदितराज के जरिये भी दलित वोट मिल सकते है। इसका सीधा मतलब होगा भाजपा की जीत, लेकिन बनारस में जिस तरह मुरली मनोहर जोशी को हटाकर मोदी को लाया गया और लखनऊ में राजनाथ को, उससे भाजपा को पंडित वोटो के कटने का डर जरूर सता रहा होगा। बनारस में हिन्दू और मुसलमान वोटर बराबर हैं। कांग्रेस ने यहाँ कोई मजबूत उम्मीदवार खड़ा नहीं किया और यह भी कहा जा रहा है कि पिछली बार बसपा के टिकट पर चुनाव लडे़ मुख्तार अंसारी को इस बार यह कह कर मुसलमानो द्वारा किनारे किया जा रहा है कि सारे मुसलमान वोट मोदी को रोकने के लिए केजरीवाल के पक्ष में कर दिए जाएँ, और अगर ऐसा हुआ तो बनारस में मुकाबला दिलचस्प हो जाएगा।
 दरअसल जिस तरह मुस्लिम धर्म गुरुओ खासतौर पर जामा मस्जिद इमाम बुखारी साहब द्वारा भाजपा को रोकने का ऐलान खुले तौर पर किया जा रहा है और अमित शाह भी जो भाषा बोल गए, संकेत यही है कि हिन्दू, मुसलमान की आर-पार की लड़ाई उत्तर प्रदेश के चुनाओ का राॅ-मटीरिअल बन चुकी है। भाजपा ने जिस तरह अपने मेनिफेस्तो में राममंदिर और गाय का जिक्र किया वह यही मान रही है कि नब्बे के दौर में जिस रामकार्ड ने सत्ता तक पहंुचाया वह आज भी सत्ता पाने का सबसे धारदार हथियार है इसलिए संयम से ही सही अपने मेनिफेस्तो में राम लिखना नहीं भूली ताकि हिन्दू वोट पोलोराइज हो सकें।
दरअसल मुजफ्फरनगर दंगों के बाद जो हालात राजनेताओ द्वारा  पैदा किये गए उसने उत्तरप्रदेश में हिन्दू और मुसलमानो में असुरक्षा का भाव पैदा कर दिया है और वह यह मानने लगा है कि पहली बार गवर्नेंस से बड़ा मुद्दा उस सरकार को चुनने का हो गया है, जो उनकी हितैसी हो। जिस सरकार के शासन तले हिन्दू, मुसलमानो को न धमका सके और मुसलमान हिन्दुओ को. मुसलमान 2002 में गुजरात में हुए दंगो के बाद मोदी को खलनायक मानने लगे है इसलिए वह भाजपा को टक्कर दे रहे किसी भी पार्टी के उम्मीदवार का साथ दे सकता है।   

गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

क्या सचमुच सेक्युलर हो चुकी है भाजपा ?

मुक्तिबोध कहते थे पार्टनर आपकी पॉलिटिक्स क्या है ? वाकई पॉलिटिक्स में कब क्या हो जाए कोई कह नहीं सकता दरअसल भाजपा 2014 के मध्यनजर वह कर रही जो न उसकी विचारधारा से मेल खाता है और न ही जिसका पाठ उसे कभी संघ ने पढाया, दरअसल भाजपा डी कार्ड और एम कार्ड के आसरे 2014 फतह करने के फुल मूड़ में है। अपने डी कार्ड की बिसात भाजपा यूपी और बिहार में वहां के दलित नेता रामविलास पासवान और उदित राज के आसरे बिछाने की तैयारी कर चुकी है।

 बिहार में 23 फीसदी और यूपी में 22 फीसदी दलित वोट हैं जो कि दलितों के ही पक्ष ही पडते हैं, और यूपी, बिहार में ऐसा कोई दलित चेहरा भाजपा के पास है नहीं जो सीट दिल सके, इसलिए  अगर किसी तरह भाजपा इन वोटों में सेंध लगाने में कामयाब होती है तो उसे यूपी, बिहार की 120 सीटों पर भारी लाभ होगा। याद करें तो आज से ठीक 12 बरस पहले 27 फरवरी 2002 को गुजरात के गोधरा में दंगों की आग भडकी थी. और उसके बाद ही एनडीए के गठबंधन से लोजपा के रामविलास पासवान इस गठबंधन से इसलिए चलते बने क्योंकि भाजपा पर लगातार साम्प्रदायिकता के आरोप लग रहे थे. लेकिन सत्ता से दूर रहने की गलती शायद पासवान के समझ में आ गयी इसलिए अब 2014 के मध्यनजर भाजपा के पक्ष में हवा बहती देख वापस आने की सोच रहे है। सत्ता के सुख पाने के लालच में राजनीतिक पार्टियों की विचारधारा लगातार हाशिये पर आ रही हैं. याद करें तो वी.पी सिंह ने जब दलितों के लिए आरक्षण की बात की तो मंडल आयोग का विरोध करने में सबसे पहले आरएसएस और भाजपा ही थे। ये ही नहीं जब 90 के दौर में आडवाणी देशभर में रथयात्रा कर रहे थे तो पासवान विरोध करने वालों में सबसे पहले थे। अर्थात  संघ और अम्बेडकरवादी सोच ने कभी एक दुसरे से समानता नहीं रखी. लेकिन इन सबके विपरीत 2014 के सत्ता के खेल में ऐसे ही कुछ ऐसे कारनामे हो रहे है जिसके बारे में न कभी बीजेपी ने सोचा और न ही कभी संघ ने. क्योंकि संघ के ही स्वयंसेवक मोदी पहली बार संघ की सोच के इतर ऐसा ही रास्ता अपना रहे है जहाँ विचारधारा गायब है और भाजपा सेक्यूलर रंग में रंगकर 2014 में सत्ता पाने के लिए ऐसा कुछ भी करने करने पर आमादा दिख रही है जो कभी भाजपा के ऐतिहासिक विचारधारा में रहा ही नहीं।
वही भाजपा एम कार्ड यानी मुस्लिम वोट को भी हाथ से नही जाने देना चाहती है। इसलिए भाजपा लगातार खुद सेक्यूलर दिखना चाह रही है। अब राजनाथ सिंह ने भी मुस्लिमों से माफी मागने की बात की है और राम मंदिर का मुद्दा लगातार धुधला होता जा रहा है, जिसके आसरे उसने 1998 में सत्ता का स्वाद चखा था। संघ के स्वयं सेवकों से बनी भाजपा संघ के पढाये पाठ से इतर नई कहानी लिख रही है और संघ भी हवा के रूख को देखकर चुप रहने में भलाई समझ रहा है, लेकिन सवाल यह भी है कि अगर भाजपा संघ से अलग विचारधारा की बात करती है तो बाबरी मस्जिद को तोड़कर मंदिर बनाने की बात कैसे कर सकती है, तो क्या अब भाजपा को अपनी गलती का एहसास हो चुका है? और वह सचमुच सेक्युलर हो चुकी है।      

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

अल्पसंख्यक वोट के आसरे 2014

  यह तो तय है की 2014 के लोकसभा चुनाव भी राजनीतिक पार्टियां जातीय समीकरणों के आधार पर लड़ने जा रही हैं। पार्टियां जातीय आधार पर हिन्दू और मुसलमानों में धु्रवीकरण की राजनीति के नायाब फॉर्मूले अपना रही हैं। इंटेलीजेंस ब्यूरो की एक रिपोर्ट के अनुसार  देश में हिन्दु, मुस्लिम समुदाय में यह धु्रवीकरण एक अंडर-करंट के रूप में फैल रहा है।

 उत्तरप्रदेश जैसे बड़े राज्य में यह सबसे तेजी से फैल रहा है और मीडिया सर्वे इसका संकेत भी दे रहे हैं। पिछले कुछ दिनों में कई ऐसी घटनाएं हुई हैं या प्रायोजित की गई हैं जिससे माइनॉरिटी या मेज्योरिटी के आधार पर लोगों में 2014 के मध्यनजर जनमत तैयार किया जा सके। इस बात में कोई दो राय नहीं कि जब-जब देश के भीतर जातीय हिंसा हुई तब-तब माइनॉरिटी और मज्योरिटी के आधार पर सत्ता का निर्धारण हुआ है। तब चाहे बात 1984  के बाद की सत्ता हो या 2002 के बाद मोदी का गुजरात में फिर से सत्ता पाने की हो। देश के एक बड़े और अहम् राज्य यूपी के मेरठ में हिन्दुत्व की पाठशाला नरेंनद्र मोदी की रैली के दौरान पहली बार जैसी भीड़ दिखी वह कहीं न कहीं यह संकेत भी हैं कि यूपी में मुज्जफरनगर दंगों के बाद जातीय धु्रवीकरण की बात को खारिज नहीं किया जा सकता है। टीवी चैनल टाइम्स नाउ में राहुल गांधी के 1984 के दंगो को लेकर माफी न मांगने वाली बात को मीडिया ने जिस गैर जिम्मेदार तरीके से उठाया और भाजपा ने उसे जिस गति से लपका उसने चुनाव से पहले देश में गवर्नेंस के मुद्दों से इतर जातीय विभाजन के आधार पर वोटबैंक का माहौल बना दिया। दूसरी तरफ देश की नयी पार्टी आम आदमी पार्टी ने 2014 के चुनावो से ठीक पहले जिस तरह 1984 के दंगो की जांच एसआईटी से करवाने की बात करके जोरदार सियासी चाल चली है उससे पार्टी को जातीय आधार पर लाभ मिलना तय है जबकि अपने तरकस में यह तीर गवर्नेंस के मुद्दों की बात करने वाली आम आदमी पार्टी दिल्ली चुनाव से पहले ही रख चुकी थी, जिसका उसे लाभ दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिला भी। बात अगर मुस्लिम अलपसंख्यक समाज की करें तो देश की 200 से अधिक लोकसभा सीटों का फैसला मुस्लिम वोट तय करते हैं। राजेंदर सच्चर रिपोर्ट में जो मुसलमानो की स्थिति दिखाई गई है उसका एक नायाब सच यह भी है कि नेहरू से लेकर मनमोहन के दौर तक मुसलमानो के लिए 210,00 से भी ज्यादा कल्याणकारी  योजनाएं लायी जा चुकी हैं लेकिन इन योजनाओ की हकीकत कागजों  तक ही सीमित रही, ताकि हर चुनाव से पहले राजनीतिक पार्टियों के लिये अल्पसंख्यक समुदाय चुनाव जीतने का रॉ -मटीरियल बना रहे और कांग्रेस, भाजपा इस बात को हर चुनाव में दोहराती रहे कि अल्पसंख्यक समाज हासिये पर पड़ा हुआ है, और सच है भी यही। तो हकीकत यही मान लिया जाए कि अल्पसंख्यक समुदाय राजनीति में सिर्फ एक वोटबैंक है और इनके इम्पावर की बात हर राजनीतिक दल हर बार इसलिए करना चाहता है ताकि आने वाले हर चुनाव में अल्पसंख्यक शब्द वोट खींचने का जरिया बना रहे।  

गुरुवार, 23 जनवरी 2014

जब सरकार ही धरने पर बैठ जाए तो....

भारतीय लोकतंत्र में संविधान लागू हुए 60 बरस से ज्यादा का वक़्त हो चला है, लेकिन किसी लोकतान्त्रिक देश में इससे बड़ी त्रासदी क्या सकती है जहाँ जनता को सरकार तक अपनी बात कहने के लिए आंदोलनो और धरनो का सहारा लेना पड़े और जब मुख्यमंत्री और उनकी सरकार ही धरने पर बैठ जाये तो आम आदमी की आवाज इस देश के भीतर कहाँ तक पहुचती है इसका अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है.  क्योंकि जब संविधान की शपथ लेकर बनी सरकार और उसके मंत्री ही जब संवैधानिक व्यवस्था को चुनौती दे दें. और समस्या के समाधान के लिए संविधान में लिखे तौर तरीकों से इतर चलकर आंदोलन और धरनो का रास्ता चुने तब क्या यह मान लिया जाये की लोकतंत्र में संविधान का मतलब कुछ भी नहीं और धरने, आंदोलन आज की राजनैतिक व्यवस्था की जरूरत.
 क्योंकि जिस तरह से आंदोलन से निकली आम आदमी पार्टी ने सड़क पर आंदोलन कर दिल्ली की सत्ता हासिल की और धारा 144  को ताक पर रखकर पुलिस अफसरों  को हटाने को लेकर सड़क पर जमकर हंगामा काटा. उससे खुलेतौर पर जो संकेत मिले वो यह कि सरकार के प्रति वर्त्तमान परिस्थितियों को लेकर जनता में जो गुस्सा है उसको आंदोलन का रूप देकर राजनैतिक लाभ प्राप्त किया जा रहा है. क्योंकि 2014  के आम चुनाव के मध्यनजर दिल्ली से ही सियासी पैंतरेबाजी शुरू हो चुकी है. पहले दिल्ली की ही नयी -नवेली सरकार की बात करें तो  दिल्ली के क़ानून मंत्री सोमनाथ भारती सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को अनदेखा कर पुलिसिया अंदाज़ में उतर गए और फिर पुलिस अफसरों को हटाने की मांग को लेकर सड़क पर आंदोलन कर डाला, साथ ही इन सबके बावजूद ऐसी कौन सी परिस्थितियां है जिनसे डरकर केजरीवाल सरकार हर काम को शॉर्टकट में निपटा देना चाहती है क्योंकि सरकार का कार्यकाल तो 5  साल होता है . भले ही केजरीवाल के इन तौर तरीकों को कितना ही असंवैधानिक क्यों न माना जाए इस सबके इतर एक सच यह भी है कि इन सब मे जनता केजरीवाल के निकट आ रही है. इसका कारण है  कई सालों के जनसरोकार से दूर जाती राजनैतिक व्यवस्था. भले ही केजरीवाल के ये  राजनैतिक तौर तरीके राजनैतिक हानि लाभ के लिए हो लेकिन इससे जनता में उनके प्रति आकर्षण बढ़ रहा है. यानि ये तौर तरीके जनता को भा रहे है. और वह इसलिए कि कई सालों से भाजपा, कांग्रेस जिस तरह जनता को ठगा है और क्रोनी कैपिटलिज्म इस देश के भीतर शुरू हुआ उससे जनता में राजनीति के प्रति एक घृणा का भाव आ गया था, और अब उसके सामने आप पार्टी एक विकल्प के तौर पर दिखायी दे रहा है, ये विकल्प कितना सही होगा आने वाला वक़्त बतायेगा, क्योंकि अब तक जो किया जनता ने किया सरकार बदल कर अब जो करना है वो केजरीवाल को.
 . भारतीय संविधान के तहत आम नागरिकों के जो अधिकार हैं वह उन्ही लो पाने के लिए जद्दोजहद कर रहा है, तो क्या संविधान लागू होने के 60 बरस बाद भी हम वही खड़े हैं जहाँ 60 बरस पहले थे, हमारी आज़ादी में आंदोलनो का बड़ा योगदान रहा लेकिन तब आंदोलन अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ था, लेकिन आज के दौर में आंदोलनो और धरनो का मतलब क्या यह  निकाला  जाए कि संविधान आज भी लागू नहीं हो पाया, जनता की चुनी सरकार जनता की नहीं सुनती. तो फिर लोकतंत्र का मतलब क्या है ?   जब संविधान के तहत हर समस्या के समाधान का एक संवेधानिक रास्ता है तो आज के दौर में धरनो का मतलब क्या निकाल जाए ? या जिस तरह अन्ना के आंदोलन से निकली आप पार्टी ने आंदोलन करके दिल्ली की गद्दी पा ली उसका मतलब धरना आंदोलन सिर्फ राजनैतिक लाभ-हानि के लिए है. देखते जाइये 65 साल के इस गणतंत्र में वर्त्तमान राजनीति गणतांत्रिक व्यवस्था को चुनौती दे रही है,