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रविवार, 22 दिसंबर 2013

बिछने लगी है 2014 की विसात

45 बरस से कोई भी सरकार जिस क़ानून को बनाने की हिम्मत नहीं जुटा पायी, जिस क़ानून को बनाने लिए के सड़कों पर बड़े- बड़े आंदोलन हुए, आखिर वह लोकपाल क़ानून बिना किसी रुकावट के संसद में पास हो गया,क्या यह चमत्कार था या यह मान लिया जाए कि एक लोकतंत्र की राजनीति सुधर रही है,पारदर्शिता आ रही है,  या यह मान लिया जाए कि पार्टियां आने वाले आम चुनाओ के लिए सियासी विसात बिछा रही हैं ,क्योंकि पहली बार कोई पार्टी हर फैसला जनता की राय लेकर करना चाहती है और सरकार बनाएं कि नहीं यह जानने के लिए जनता के बीच जाकर सभाएं कर रही हैं, वहीँ दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी उसी पार्टी को समर्थन देने के लिए आमादा है जो उसे विलेन बनाकर चुनाव जीती है, लेकिन आम आदमी पार्टी की परेशानी यह है कि उसे सरकार बनाने से ज्यादा चिंता अपने आत्मसमान और साख की है, क्योंकि उसने जनता से वादा किया था कि वह भ्रष्टाचारियों से किसी भी हालत में दोस्ती नहीं करेंगे,

 सरकार बनाने के किये जोड़-तोड़ के तिकड़म करने में माहिर भाजपा भी सत्ता से दूर ही रहना चाहती है,आखिर क्यों ? जबकि भारत की राजनाति के पन्नो को पलटें तो यही मिलेगा कि चुनाव जीतने के बाद चुनावी वादे तो दूर की बात है पार्टियों ने जनता के बीच आना भी उचित नहीं समझा, तो क्या मौजूदा हालात देश के राजनीतिक तौरतरीकों में बदलाव का इशारा कर रही है, जब हर कोई पार्टी सत्ता पाने के लालच से इतर जनता में अपनी साख और भरोसा जगाना चाहती है, क्योंकि दिल्ली में हुए विधानसभा चुनाओ में जिस तरह जनता ने भाजपा कांग्रेस को खारिज कर एक नयी पार्टी को जिताकर यह संकेत दिया कि वो बदलाव चाहती है, कहीं जनता के इस मेसेज से पारम्परिक पार्टियां डर और सहम तो नहीं गयी हैं, इसलिए 2014 में आने वाले आम चुनाओ के लिए कोई गलती नहीं करना चाहती हैं,
इस सच्चाई को किसी भी तरह ख़ारिज नहीं किया जा सकता कि आम आदमी पार्टी ने दिल्ली चुनाओ में जिस ट्रांस्परेंसी से चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की उसने अन्य पार्टियों को भी इसी राह पार चलने को मजबूर कर दिया है कि अगर आम आदमी को नजरअंदाज करोगे तो सत्ता बदल दी जायेगी, देश की राजनीति में बदलाव की यह शुरुआत तो आम आदमी पार्टी ने शुरू की है, भले ही वह अपने चुनावी वायदों पर खरी उतरे या नहीं ,
दिल्ली विधान सभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने शायद यह सोचा भी नहीं होगा कि इतनी बड़ी जीत मिल जायेगी इसलिए उसने ऐसा एजेंडा बनाया जिससे आम आदमी में भरोसा जगे, उसने आधारभूत समस्याओ को ही आधार बनाया और वादा किया कि वह लोगों को बिजली पानी सस्ते दामों पर दिलवाएगी, पार्टी की ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि देखकर लोगों ने भरोसा किया और बड़ी जीत दिलवायी, अब जनता और विपक्षी पार्टिया दबाव बना रही हैं कि सरकार बनाओ और वादे पूरे करो, वादे भले ही मुश्किल हो लेकिन आम आदमी पार्टी 2014 के चुनावो में उतरने का पूरा मन बना चुकी है, इसलिए आम आदमी को समर्थन देने का कोंग्रेसी दांव उसे भारी भी पड़ सकता है, क्योंकि आम आदमी पार्टी 2014 को लेकर सारे देश में अपना नेटवर्क बना चुकी है कई राज्यों यूपी उत्तराखंड में अपने दफ्तर भी खोल चुकी है, और अगर आम आदमी पार्टी को 2014 के चुनाओ से पहले कुछ महीने सरकार बनाने का मौका मिलता है तो वह अपने किये वादों को पूरा करने की कोशिश करेगी, जिससे जनता में एक सकारात्मक सन्देश जाए भले ही इन वादों कि भरपाई का असर कैसा भी हो, अगर आम आदमी पार्टी यह काम कर गयी तो 2014 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस और भाजपा के लिए किसी खतरे से कम नहीं होगा,

सोमवार, 9 दिसंबर 2013

आप की जीत क्या बदलाव का संकेत है ?

भारतीय राजनीति में यह पहली बार नहीं हुआ है जब आदोलन की पृष्ठभूमि से निकली एक नयी पार्टी ने बड़े -बड़े दिग्गजों को धराशाही कर दिया. पहले भी ऐसे मौके कई बार आये जब जनता ने  जम्हूरियत का जीता जागता उदाहरण दिया. बात तब चाहे 1975 में इंदिरा के खिलाफ  जेपी के सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन से निकले लालू की हो!  या फिर आंध्र क्रांति से निकले  एनटीआर की हो, जब जब स्थापित पार्टियों ने जनसरोकारी राजनीति से इतर आम आदमी की नहीं सुनी तब-तब जनता ने नए राजनीतिक विकल्प तलाश की लेकिन जनता ने जिन्हे विकल्प के रूप में देखा उनकी राजनीति भी आगे चलकर उसी भ्रष्ट राजनीति का हिस्सा बन गयी. इसीलिए यह सवाल उठना लाज़मी है कि आंदोलन के गर्भ से निकली दिल्ली की आम आदमी पार्टी कुछ अलहदा कर पायेगी या नहीं ?
   
 इस पार्टी का भविष्य चाहे जो भी हो लेकिन दिल्ली में एक साल की आम आदमी पार्टी ने जिस तरह भाजपा और कांग्रेस जैसी बड़ी और स्थापित पार्टियों की जड़ें हिलायी है वह साफ़ संकेत देती है कि मौजूदा वक़्त में लोग बदलाव की राजनीति चाहते हैं, जो कि भ्रष्टाचार मुक्त हो. इन चार राज्यों में हुए चुनावो ने यह जतला भी दिया है, पिछले 10 सालों से केंद्र में राज कर रही कांग्रेस पार्टी के कार्यकाल में कई घोटाले हुए. महगाई बढ़ी, विकास दर कम होती गई, जनता में एक आक्रोश था ,शायद चार राज्यों में कांग्रेस की हार का प्रमुख कारण केंद्र सरकार के खिलाफ एंटीइनकम्बेंसी ही बनी. चुनाव परिणाम के बाद राहुल गांधी को केजरीवाल से  सीख लेनी चाहिए कि भ्रष्ट व्यवस्था से परेशान जनता  में विश्वास कैसे जगाया जाये, चुनाव परिणामों के बाद राहुल गांधी ने मीडिया से अपनी प्रतिक्रिया में ये कहा भी कि युवाओ को न जोड़ना हमारी गलती रही, भाजपा और कांग्रेस की ही बात करें तो ये युवावो को मौका देने की बात तो करते रहे लेकिन परिवार वाद इन पार्टियों में हमेशा हावी रही. चार राज्यों में हुए चुनावो पर ही नजर डालें तो मध्य प्रदेश , छत्तीसगढ़ . राजस्थान , और दिल्ली में कई नेताओ के ही बेटों या बेटियों को टिकट दिए गए, दिल्ली की बात करें तो भाजपा के विजय जौली, साहिब सिंह वर्मा, के बेटे चुनाव में खड़े थे, उसके इतर आम आदमी पार्टी ने कई ऐसे पढ़े-लिखे युवावों को टिकट देकर  विधायक बना दिया जो कल तक रोजगार की तलाश में सड़कों पर थे, व्यवस्था परिवर्तन के लिए सड़कों पर आंदोलन का हिस्सा थे, और उसी आम युवा ने दिल्ली चुनावों में बड़ी पार्टियों के दिग्गजों को कुर्सी से बेदखल कर दिया, शायद यही लोकतंत्र की खूबसूरती है, कि जनता जन जाये तो व्यवस्था तो उसकी मुठ्ठी में है, दिल्ली के चुनाव परिणामों ने एक सवाल तो हर एक के जेहन में खड़ा कर दिया है  कि अगर आगामी लोकसभा चुनावों में देश को कोई भरोसेमंद रानीतिक विकल्प मिले तो जनता भाजपा और कांग्रेस से इतर उसे तरजीह दे सकती है, बशर्ते भारत जैसे भौगोलिक विषमता वाले देश में जहाँ हर वोटर पढ़ा लिखा नहीं है, पीएम को लेकर उनके जेहन में इंदिरा से आगे बात बढ़ती ही नहीं और वो आज भी गांधी और अटल को ही देखकर वोट डालते हैं उनको अन्ना जैसे लोग को जागरूक करते रहे,
क्या देश जाग रहा है ? क्योंकि देश मैं सेक्युलर विचारधारा का हूँ... मैं साम्यवादी  विचारधारा  का हूँ... , और मैं हिन्दू,विचारधारा का हूँ, ....जैसे नेताओं के चुनावी हथियारों ने  लोगों को खूब ठगा है,   मजहब के नाम पर वोट पाने वाली राजनीती इन चार राज्यों में हुए चुनावों में कमजोर होती हुई दिखी, हिन्दू पार्टी समझी जाने वाली भाजपा को मध्य प्रदेश में मुसलमानों का भी खूब साथ मिला, वही राजस्थान में अशोक गहलोत का वोटबैंक कहे जाने वाली मीणा गहलोत का साथ  छोड़ते दिखे, तो क्या ये मान लिया जाये कि धर्म की राजनीति का तिलिस्म भी धीरे- धीरे  खत्म होता जा रहा है?  और यह चुनाव इसका संकेत मात्र है, ....इससे आगे की चर्चा अगले पोस्ट में करूँगा.......

गुरुवार, 28 नवंबर 2013

तरुण, तहलका और पत्रकारिता की त्रासदी का युग

सुनील रावत: वर्ष 2001  मे तरुण तेजपाल ने तहलका डॉट कॉम के जरिये  भाजपा के नेता बंगारू लक्ष्मण  को रिश्वत लेते कैमरा में कैद कर के तहलका मचा दिया था, और उसके बाद मैच फिक्सिंग करते खिलाड़ियो और बुकियों को बेनक़ाब करना हो या गुजरात दंगों में अपने स्टिंग ऑपरेशन  "कलंक" के जरिये  माया कोडनानी और बाबू बजरंगी की संलिप्तता दिखाकर उनको सलाखों के पीछे  भेज  दिया, ऐसे  कई खुलासों ने तहलका और तरुण तेजपाल को पत्रकारिता जगत में एक पहचान दिला दी ,  तहलका की  खोजी पत्रकारिता  लगातार जारी रही. तहलका अपनी खोजी पत्रकारिता के लिए जाना माना नाम बन  गया.

 20 से 30 साल के युवा पत्रकारों की टीम ने तहलका के जरिये मीडिया के कॉर्पोरेट दौर में सरोकारी और सत्ता पर असर करने वाली पत्रकारिता का विश्वास जगाया, लेकिन ये अपने तरह का पहला मामला है कि जिस व्यक्ति ने तहलका को खड़ा किया और सफलता की बुलंदियों तक पहुँचाया आज वही व्यक्ति खुद तहलका के लिए त्रासदी बना हुआ है, और वो भी अपनी पत्रकारिता के कारण नहीं बल्कि अपनी एक एक ऐसी करतूत से जिसका पत्रकारिता का दूद दूर तक कोई लेना देना नहीं. तेजपाल पर  उन्ही की एक सहयोगी लड़की ने गोवा में एक समारोह के दौरान सेक्सुअल असाल्ट करने का आरोप लगाया. और तेजपाल ने अपनी गलती को मान भी लिया और अपने पद से 6  महीने के लिए त्यागपत्र दे दिया. हालाँकि उन्हें असली सजा तो क़ानून देगा, लेकिन संयोग देखिये जिस तरुण तेजपाल के कारण अधिकतर युवा तहलका के जरिये पत्रकारिता करना चाहने थे, आज उसी तेजपाल के कारण कई पत्रकार तहलका छोड़ रहे है, जिनमे शोभा चौधरी,राणा अयूब, जैसे कई नाम हैं,
हालाँकि कुछ लोग इस दौर में तेजपाल के इस निजी कृत्य के कारण तहलका और उसकी पत्रकारिता पर लगातार हमले कर रहे हैं.  जो कि उचित नहीं है, तरुण तेजपाल ने जो किया वो अपराध की श्रेणी में आता है, ये पूर्णतः घृणित अपराध है, दोषी सिद्ध होने पर कड़ी से कड़ी सजा भी मिलनी चाहिए, और एक बड़े पत्रकार के लिए तो यह बहुत ही शर्मनाक है, क्योंकि पत्रकारिता सिर्फ एक पेशा नहीं बल्कि समाज की वो आदर्श स्थिति है जिससे सामाजिक ताना-बाना सीधे सीधे जुड़ा हुआ है, पत्रकार का काम सिर्फ ख़बरों को पहुचाना मात्र नहीं है बल्कि समाज को रास्ता दिखाना भी है,खैर मुद्दे पर लौटते है, तेजपाल ने जो किये उससे निपटना क़ानून का काम है, लेकिन तेजपाल के कारण तहलका और पत्रकारिता पर हमला करना उचित नहीं होगा, क्योंकि तहलका आज के दौर में तरुण तेजपाल के कारण  ही नहीं बल्कि उससे इतर तहलका में  काम करने वाले कई युवा पत्रकारों के कारण भी जाना जाता है, तेजपाल ने कई सत्ताधारियों की चूलें हिलायी हैं, इसलिए उनके विरोधियों की संख्या भी सम्भवतः अधिक होगी,कहावत है कि एक बुराई सौ अच्छे कर्मो को मिटटी में मिला देती है,  तेजपाल के इस अपराध ने विरोधियों को हमला करने का मौका तो दिया ही है साथ ही तहलका की पत्रकारिता पर भी हमला करने का सुनहरा मौका विरोधियों को दिया है,  कई लोग सवाल उठा रहे हैं  कि तहलका के स्टिंग भाजपा पर ही क्यों होते हैं लेकिन सवाल यह नहीं होना चाहिए क्योंकि यह कतई जरूरी नहीं किसी एक पार्टी कि चोरी पकड़ में आयी है तो दूसरी पार्टी की चोरी भी उसी के द्वारा पकड़ी जानी चाहिए थी.  अगर किसी पार्टी का भ्रष्टाचार पकड़ा गया है तो इसका मतलब चोरी हो रही थी तभी पकड़ी गई,
 कई पत्रकार भी इसी पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं, ये वही लोग है जो खुद पत्रकार होकर निष्पक्ष न होकर पार्टीवादी मानसिकता रखते है, ऐसे दौर में जब अखबारों और टीवी चैनलो पर राजनैतिक पार्टियों की  चाटुकारिता के आरोप लग रहे है तब पत्रकारों का एकजुट होना जरूरी है, क्योंकि डर  इस बात का है कि जनता का मीडिया को लेकर जो पार्टीवादी परसेप्शन बनता जा रहा है कही उसकी आड़ में जनता के असल मुद्दो और महत्व रखने वाले समाचारों की मृत्यु न हो जाये, देश के तमाम मीडिया संस्थानो को अपनी साख बचानी होगी, वरना ऐसे लोकतान्त्रिक देश के लिए जहाँ जनता सरकार  चुनती है, और मीडिया सरकार बनाने के लिए जनमत बनाने का सबसे बड़ा माध्यम है इसलिए इस चौथे खम्भे को मजबूत करना जरूरी है,  देश में पत्रकारिता को सुधारना होगा, क्योंकि पिछले कुछ बरस में लोकतंत्र की  निगरानी करने वाला चौथा स्तम्भ मीडिया भी लगातार राजनीतिकरण का शिकार हुआ है और तथाकथित पत्रकारों और संपादको कि करतूते पत्रकारिता के लिए त्रासदी बनती जा रहा है.
आज देश में सैकड़ों अख़बार और टीवी चैनल है, लेकिन आम आदमी कि परेशानी ये है कि वह किसकी ख़बरों पर भरोसा करे,क्योंकि सबकी मानसिकता यह हो चली है कि ये चैनल भाजपा वालों का है और ये कांग्रेस का, क्योंकि इन अखबारों और चैनलो की  पहचान भी भाजपा कांग्रेस से जुड़ती जा रही हैं, और ऐसे सम्पादकों की कमी नहीं जिनका सम्बन्ध किसी राजनैतिक पार्टी से न हो, गूगल सर्च करेंगे तो कई ऐसे पत्रकारों के बारे में जानने का मौका मिलेगा जो पत्रकारिता करते- करते पिछले दरवाजे पिछले दरवाजे से राजनैतिक पार्टी में शामिल हो गए, पंकज पचौरी एनडीटीवी से मनमोहन के मीडिया सलाहकार बन गए, इसके अलावा अरुण सौरी, चन्दन मित्रा और हिंदुस्तान अख़बार के संपादक, कई उदाहरण है, तो समझिये कि जिस पत्रकारिता के आसरे आम आदमी सरकार या अपने नेताओ को परखता है बल्कि पब्लिक परसेप्शन भी  बनाता है, वही मीडिया निष्पक्ष न होकर पार्टियों कि चापलूसी करने लगा है, अब चैनलों और अख़बारों का इस्तेमाल गलत काम करने वाली सरकार को हटाने नहीं बल्कि बचाने के लिए होने लगा है, चुनावी मौसम में कई अख़बार और टीवी चैनल पनपने लगे है, क्योंकि कमाई करने का यही सुनहरा मौका होता है, जिंदल और ज़ी न्यूज़ प्रकरण हो या 2जी स्पैट्रम या फिर तहलका के संपादक तरुण तेजपाल की ताज़ा करतूत, सभी ने पत्रकारों की विश्वसनीयता की साख पर बट्टा लगाया है,

शनिवार, 16 नवंबर 2013

कई सचिन पैदा कर गए सचिन

24 बरस पहले 15 नवंबर 1989 को जब कराची में सचिन ने  पाकिस्तान के खिलाफ टेस्ट मैच से टेस्ट कैरियर  की शुरुआत की  तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि ये छोटे कद का खिलाड़ी क्रिकेट के एक युग का परिचायक बनेगा। 14 नवंबर 2013 को अपने घरेलू मैदान वानखेडे में वेस्टइंडीज के खिलाफ अपना 200वां टेस्ट खेलकर क्रिकेट को अलविदा कह दिया।  सचिन के सन्यास के बाद मानो क्रिकेट का एक युग के खत्म होने जैसा है, क्रिकेट जब तक रहेगा शायद तब-तब हर-एक के जेहन में एक नाम याद  आएगा " सचिन रमेश तेंदुलकर "।

 आने वाली पीढ़ी जब पीछे मुड़कर देखेगी तो वो जरूर सोचेगी ये सचिन कैसे खेलता होगा। जिसके नाम दुनिया भर के रिकॉर्ड कायम हैं। 15,921 टेस्ट रन,  18,426 एकदिवसीय रन, 51 टेस्ट सतक, 49 एकदिवसीय सतक, कुल मिलकर 100 सैकड़े, एकदिवसीय में पहला दोहरा सतक बनाने वाला खिलाडी, लेकिन जिन्होंने सचिन को खेलते देखा है वो अपनी इस उपलब्धि से गदगद होंगे कि हमने तो सचिन को खेलते हुए देखा है। ये ढाई दसक इतिहास को सुनहरा बना चुके हैं, या यूँ  कहें कि सचिन का मतलब है क्रिकेट और क्रिकेट का सचिन,  मात्र सात बरस कि उम्र में बल्ला थामा  और तब से सिर्फ क्रिकेट ही खेला  और क्रिकेट ही सोचा,  अब जब 24 बरस बाद सचिन क्रिकेट को अलविदा कह रहे सचिन तो सबके मन में  एक सवाल उठना लाजमी है कि अब सचिन क्रिकेट से दूर कैसे रह पाएंगे?  सचिन नाम सिर्फ एक खिलाड़ी का नाम नहीं बल्कि एक नाम समर्पण की मिशाल का  भी है, जिसने अपने समर्पण से अपने हुनर को इस बुलंदी तक पहुंचाया कि पूरी दुनिया इस लिटिल मास्टर का लोहा मानने  को मजबूर हो गयी, अगर अगर बीते 24 बरस की  बात करें तो देश में बहुत कुछ बदला, देश ने कई प्रधानमंत्री देखे, क्रिकेट में मैच फिक्सिंग जैसी घटनाएं हुई, कई घोटाले हुए, दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश के सियासतदानो और व्यवस्था से जनता का विश्वास उठा,  लोग सड़कों  पर उतरे, लेकिन इन सबसे से इतर 24 बरस में एक सख्स ऐसा भी था जो हमेशा अपने कर्त्तव्य पर अडिग रहा। जब सीमा पर भारतीय सैनिक युद्ध में अपनी जान  गवां रहे थे तब सचिन लगातार पाकिस्तानी गेंदबाजों के छक्के छुड़ा रहे थे, इमरान खान, वकार यूनिस वसीम अकरम, जैसे गेंदबाजो को सबक सिखा रहे थे।
 अगर आज भारत क्रिकेट में दुनिया में आज नंबर है तो इसमें सचिन तेंदुलकर का महत्व पूर्ण योगदान है। आज अगर भारत में महेंद्र सिंह धोनी, युवराज, विराट कोहली, रोहित शर्मा जैसे खिलाडी है तो इन सबका प्रेरणाश्रोत सचिन ही हैं  जो 16 साल कि उम्र से लगातार देश के इन युवाओ को सर्वश्रेष्ठ  और तकनीक से भरपूर क्रिकेट कवर ड्राइव, स्ट्रैट ड्राइव, पुल, हुक, जैसे शॉर्ट दिखाते रहे। जब मुम्बई के वानखेड़े में अपनी अंतिम पारी सचिन खेल रहे थे तो ऐसा लग रहा था कि मानो  सचिन क्रिकेट प्रेमियों  आज भी  वही सर्वश्रेष्ठ  क्रिकेट स्ट्रोक दिखाना चाहते हो, शॉट खेलने में वही तत्परता, क्रिकेट में पूरी तरह डूबे हुए, गेंदबाज के हाथ से लेकर बाउंड्री के पार जाने  तक गेंद पर पूरी निगाह, जबकि क्रिकेट के इस भगवान् की अंतिम पारी का साक्षी बनने के लिए दुनिया भर की मीडिया का जमावड़ा था। उनके गुरु रमाकांत आचरेकर, उनकी माँ, बीवी बच्चे,  फिल्मी सितारों से लेकर, सियासत के खिलाडी तक मौजूद थे, और ऐसे में उनके खेल की एकाग्रता पर असर पड़ना लाज़मी है, लेकिन सचिन के खेल में ऐसा कुछ लगा नहीं, वो तो बस गेंदो से मुक़ाबला  करने में मगशूल थे।
 अपनी अंतिम पारी के बाद सचिन ने जो कहा वो सुनकर लाखों लोगों के आँखों में आंसू थे कि अब सचिन मैदान पर नहीं दिखेंगे। ये एक महान खिलाडी के ही गुण है कि, इतना बड़ा खिलाडी होने के बाद भी, एक पति, शिष्य, बेटा, भाई की  भूमिका भी वो सहजता से निभाते रहे, भारत रत्न किसी खिलाड़ी को मिले यह चर्चा भी शायद सचिन जैसे खिलाड़ी के कारण ही सम्भव हो पाया, सचिन जैसा खिलाडी सदी में सिर्फ एक ही बार पैदा होता है। इन 24 बरस में सचिन ने अपने सर्वश्रेष्ठ खेल से देश ही नहीं पूरी दुनिया को कई सचिन दिए हैं। पूरे अंतराष्ट्रीय क्रिकेट में कई खिलाड़ी आये, शायद ही 90 के दसक के बाद का कोई ऐसा गेंदबाज हो जिसको सचिन ने न खेला हो, भारतीय टीम में ही कई ऐसे खिलाड़ी है हैं जिनकी पैदाइस सचिन के क्रिकेट करिएर से छोटी है।  अब आने वाली पीढ़ी में शायद ही कोई ऐसा खिलाड़ी होगा जो 24 बरस तक देश के लिए  क्रिकेट खेलता रहेगा।

गुरुवार, 31 अक्टूबर 2013

सरदार पटेल कहीं मोदी का नया सियासी पैंतरा तो नहीं ?


इतिहास के लिहाज से 31  अक्टूबर का दिन बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि  आज देश के दो  महान व्यक्तित्वों  को पूरा देश याद  कर रहा है, इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि और सरदार पटेल की की जन्मतिथि और आज के दौर में राजनैतिक पार्टियों द्वारा उन्हें कैसे याद किया जा रहा है, ये भी जरा देखिये,  31 अक्टूबर 2013 को गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात की नर्मदा नदी पर स्थित सरदार सरोवर बांध पर लौह पुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल की  मूर्ती, "स्टेचू  ऑफ़ यूनिटी"  का उनकी जन्म तिथि पर  शिलान्यास करने जा रहे हैं, अपने अनेको भाषणो में मोदी पटेल का ज़िक्र भी करते रहे हैं, मोदी ने अपने भाषण में यहाँ तक कहा है कि काश सरदार साहब देश के पहले प्रधानमंत्री होते तो देश कि स्थिति आज कुछ और होती, बीजेपी के रविशंकर कहते है कि देश कि देश की ज्यादातर रियासतों को विभाजन के बाद सरदार पटेल ने ही सम्भाला था, और कश्मीर को नेहरू जी ने हैंडल किया था इसलिए वहाँ आज भी विवाद जारी है, सरदार पटेल गुजरात में जन्मे एक खांटी हिन्दू थे,  तो क्या  भाजपा पटेल को अपने पाले में डालकर देश में एक नयी सियासत को जन्म दे रही है, लेकिन एक दूसरा सच यह भी है कि गांधी नेहरू और पटेल ने ही भारत को एक धर्म निरपेक्ष देश बनाने का सपना देखा था और और गांधी जी के सबसे करीबियों में सरदार पटेल माने जाते थे,  जब 30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी कि हत्या की तो देश के गृह मंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल ही थे, और उन्होंने इस बात  को स्वीकार किया था  कि सुरक्षा में चूक से गांधी जी की  हत्या हुई, महात्मा गांधी कि मौत से सरदार पटेल बड़े सदमे में थे और उसके कुछ ही महीने के बाद सरदार सरदार पटेल को दिल का दौरा पद गया था, यहाँ तक कि  हत्या में हिंदू चरमपंथियों का नाम आने पर पटेल ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रतिबंधित कर दिया और संघ संचालक एमएस गोलवरकर को जेल में डाल दिया गया। रिहा होने के बाद गोलवरकर ने उनको पत्र लिखे। 11 सितंबर, 1948 को पटेल ने जवाब देते हुए संघ के प्रति अपना नजरिया स्पष्ट करते हुए लिखा कि संघ के भाषण में सांप्रदायिकता का जहर होता है.. उसी विष का नतीजा है कि देश को गांधी जी के अमूल्य जीवन का बलिदान सहना पड़ रहा है। वही कांग्रेस भी गांधी नेहरू के नाम पर इस देश के भीतत हमेशा सियासत करती रही है, और मौजूदा वक़्त में गांधी नाम ही कांग्रेस पार्टी का सबसे वोट पाने हथियार रहा है, कांग्रेस ने इसका इस्तेमाल देश में अनेको कल्याणकारी योजनाओ, सड़को, मैदानो तथा हवाई अड्डों के नाम गांधी नेहरू के नाम पर रख कर वोट खीचने का काम हमेशा किया है,
आज 31 अक्टूबर को देश कि पहली महिला प्रधान मंत्री और लौह महिला इंदिरा गांधी को भी याद करने का दिन है, इंदिरा गांधी जैसा ब्यक्तित्व देश में सदियों में एक आध बार ही पैदा होती है, उनकी कुशल राजनीति और क्रांतिकारी फैसलों के कारण ही देश ने पकिस्तान को युद्ध में हरा कर दो टुकड़ो में बाँट दिया था, इंदिरा गांधी की हत्या 31 अक्टूबर 1984 को कर दी गई। इनके पूरे राजनीतिक जीवन में ढ़ेर सारे विवाद जुड़े। इनका व्यक्तिगत जीवन भी विवादों के साए में रहा। इन पर तानाशाही और हर हाल में सत्ता बनाए रखने का आरोप लगता रहा। इनसे जुड़ा सबसे बड़ा विवाद आपातकाल और ऑपरेशन ब्लू स्टार है। 26 जून 1975 को संविधान की धारा- 352 के प्रावधान के अनुसार आपातकालीन स्थिति की घोषणा कर दी गई। इस पर पूरे देश में काफी हो हल्ला मचा। और इंदिरा गांधी जी कि हत्या का कारण भी यही ओप्रशन ब्लूस्टार बना, लेकिन इंदिरा गांधी जैसा नेतृत्व करने वाला प्रधान मंत्री आज के दौर में बहुत मुश्किल है, 

सोमवार, 28 अक्टूबर 2013

उलटफेर करने में माहिर है दिल्ली का वोटर

1956 में दिल्ली को केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा मिला उससे पहले दिल्ली में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ही सरकार थी, और मुख्यमंत्री थे जी एन सिंह, लेकिन 1993  में दिल्ली को फिर राज्य स्तर का दर्जा मिला और एक बार फिर दिल्ली में लम्बे समय बाद चुनाव हो रहे थे, और इस चुनाव में 1224361 लोगो ने  वोट दिया, और राजनेतिक दल थे भाजपा, कांग्रेस, और जनता दल, लेकिन उस दौर में दिल्ली के वोटरो ने बड़ा उलटफेर करते हुए भाजपा को 70 में से 49  सीटो पर विजय दिला दी, जबकि कांग्रेस को मात्र 14 और जनता दल को 4 सीटो पर संतुष्ट होना पड़ा, दिल्ली में भाजपा कि सरकार बनी मुख्यमंत्री बने मदन लाल खुराना, लेकिन 1996 में हवाला कांड ने उनकी कुर्सी छीन ली और साहिब सिंह वर्मा बने दिल्ली भाजपा कि तरफ से नए मुख्यमंत्री और संयोग देखिये कि जिस प्याज की कीमतो के लिए आज दिल्ली कि मुख्यमंत्री शीला दीक्षित कि कुर्सी खतरे में है और लोग शीला सरकार पर महगाई को काबू न करने पर आड़े हाथों ले रहे हैं, दरअसल वही प्याज 1996  में साहिब सिंह वर्मा को कुर्सी से बेदखल कर चुका है, और उनकी जगह पर सुषमा स्वराज को मुख्यमंत्री बनना पड़ा था,
 
 खैर 19198  तक दिल्ली में भाजपा की सरकार किसी तरह चली लेकिन 1998  के दिल्ली विधान सभा चुनावो ने भाजपा को ऐसा सबक सिखाया कि अभी तक दिल्ली कि गद्दी भाजपा से दूर ही है, और शीला 2003 और 2008  के भी चुनाव जीतकर सबसे लम्बे समय तक रहने वाली मुख्यमंत्री  बन चुकी है, शीला सरकार की इन 15 सालो कि अपनी उपलब्धियों को गिनाकर  4 दिसम्बर 2013 को होने वाले चुनाव में उतर रही है, इन 15 सालों में दिल्ली में हुए बदलाओ में  शीला मेट्रो रेल और  डीटीसी और कॉलोनियों कि वैधता जैसे मुद्दो को गिनाती है, लेकिन दिल्ली  अंदर से कितनी बदली इसका जवाब तो यहाँ के लोग ही जानते हैं, दिल्ली का दूसरा सच यह भी है कि इन 15  सालो में दिल्ली में  हत्या लूटपाट, और सड़को परमहिलाओ के साथ घटी आपराधिक घटनाओ ने जमकर पाँव पसारे हैं, दिल्ली में हुए करोडो के कमनवेल्थ घोटाले ने भी दुनिया भर में सुर्खियां बटोरी, और बिजली, पानी के निजीकरण के बाद इनकी दरें  आसमान छु रही हैं , यहाँ तक कि इस बार बिजली दिल्ली के चुनावो में चुनावी पार्टियों का प्रमुख चुनावी एजेंडा बना हुआ है, भाजपा कहती है कि जीत गई तो बिजली कि दरें 30 प्रतिशत घटाएंगे, वही इस बात दिल्ली दस्तक दे रही नयी पार्टी आम आदमी पार्टी 50 प्रतिशत तक दाम कम करने के वादो से जनता को लुभाने कि कोशिश में लगी हुए हैं,
2013 में होने वाले चुनाओ में नरेंद्र मोदी को लेकर पूरे देश में चर्चाएं हो रही है, लेकिन दिल्ली विधान सभा चुनावो में नरेंद्र मोदी से ज्यादा चर्चा का विषय इस बार आम आदमी पार्टी बनी हुए है, तमाम टेलीविज़न चेनलों और एजेंसियों के सर्वे में आम आदमी पार्टी को उलटफेर  करते हुए दिखाया गया है, अन्ना  के आंदोलन से  उपजी यह पार्टी अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही है, इस पार्टी के तमाम बड़े नेता सोशल एक्टिविस्ट रह  चुके हैं, और जनलोकपाल बिल की मांग को लेकर  और अन्ना के आंदोलन में भी ये लोग  शरीक हुए थे, इसलिए इस दौर में जब देश  में भ्रष्टाचार, 2 जी, कोयला, रेल जैसे घोटालो से जूझ रहा है, महगाई आम आदमी के लिए बड़ी त्रासदी बनती जा रही है, ऐसे में उलटफेर करने में माहिर दिल्ली के वोटर आम आदमी पार्टी दामन पकड़ सकते हैं, जो कि भाजपा और कांग्रेस दोनों का सियासी खेल बिगाड़ सकती है, दिल्ली कि 70 विधानसभा सीटों में से अभी तक आप पार्टी 65 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े  कर चुकी है,
एसोशिएसन ऑफ़ डेमोक्रेटिक रिफार्म और नेशनल इलेक्शन  वाच द्वारा जुटाए गए आकड़ों के मुताबिक़ दिल्ली के चुनावो में कुल 46 फीसदी विधायको पर आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिनमे भाजपा के 46 और कांग्रेस के 38 फीसदी विधायक अपराधिक गतिविधियों में लिप्त हैं,ऐसे में दिल्ली का वोटर किसे वोट दे ये उसके सामने बड़ा सवाल बना हुआ है, ऐसे में दिल्ली का वोटर विकल्प के तौर पर  आम आदमी का साथ दे सकता है,
 इसलिए  दिल्ली का वोटर इस बार किसी बड़े उलटफेर के मूड में जरूर दिख रहा है, क्यूंकि इस बार दिल्ली के चुनाव में युवा मतदाताओं कि तादात सबसे ज्यादा है, जो कि 1,15,11,036  में से 35,36,000 हैं, और दिल्ली में हालही में हुए तमाम घटनाओ चाहे सामूहिक बलात्कार के मामले में हो या लोकपाल को लेकर किया गया अन्ना  का अनसन सब में युवाओ ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था, तो क्या इस बार दिल्ली कि गद्दी पर कौन बैठेगा इसका फैसला दिल्ली के युवा वोटरों पर निर्भर रहेगा,


शनिवार, 26 अक्टूबर 2013

सेक्युलर किस चिड़िया का नाम है भाई?

31 अक्टूबर  1984 सुबह 9:20 मिनट प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी को उनके दो सिख सुरक्षा गार्डो ने उनके सफ्तरजंग स्थित आवास पर गोली मर दी। जिसके तुरंत बाद उन्हें एम्स में ले जाया गया। सुबह 10:50 मिनट पर डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। सुबह 11 बजे आल इंडिया रेडियो से खबर पूरे देश में आग की तरह फ़ैल  गयी, राजीव गांधी उस वक़्त पश्चिम बंगाल में थे और शाम के 4 बजे वे भी दिल्ली पहुचे, राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह सहित कई लोग वहां पहुचे। इन सब घटनाओं के फलस्वरूप 3 नवम्बर तक देश भर में सिख विरोधी दंगे होते रहे जिनमे देश भर में 8000 के करीब सिखों को दंगाईयो ने मार दिया, सिर्फ दिल्ली में 3000 सिखों की हत्याए हुई।  जिसमे जिन्दा जलाना, लूटपाट, और बलात्कार जैसी घटनाये शामिल थी, इस दंगे को सिख नरसंहार के रूप में भी जाना गया, इन् दंगो को भड़काने में कांग्रेस के कई बड़े नेताओं के नाम आये जिनमे सज्जन कुमार, जगदीश टाइटलर, जैसे नाम शामिल थे, लेकिन जब देश में 1984 के लोकसभा चुनाव हुए तो उसने देश की जनता ने इंदिरा गांधी को कांग्रेस पार्टी को 515 में से 404 सीटें जीता कर इंदिरा गांधी को याद किया, हालाँकि उस दौर में तेलगुदेशम पार्टी को भी 30 सीटें मिली और वो दुसरे स्थान पर रही।

अब आपको याद दिलाना चाहता हूँ 2002 हुए दंगो की जिनको मुश्लिम की हत्याओं के रूप में जाना गया। 2002 की गुजरात हिंसा भारत के गुजरात राज्य में फरवरी और मार्च 2002 में होने वाले सांप्रदायिक हत्याकांड तब शुरू हुआ जब 27 फरवरी 2002 को गोधरा स्टेशन पर साबरमती ट्रेन में आग से अयोध्या से लौट रहे हिन्दुत्व से जुड़े 59 हिंदु मारे गए यह घटना स्टेशन पर किसी मुसलमान रहने वाले के साथ कारसेवकों के झगड़े के बाद घटी बताई जाती है। कहा जाता है कि मुसलमान एक ग्रुप ने ट्रेन के विषेश डिब्बे को निशाना बनाकर आग लगाई। यह गुजरात में मुसलमानों के खिलाफ एकतरफा हिंसा का माहौल बन गया। इसमें लगभग 790 मुसलमानों एवं 254 हिन्दुओं की बेरहमी से हत्या की गई या जिंदा जला दिया गया। उस दौर में गुजरात की सत्ता भाजपा के हाथ में थी और नरेन्द्र मोदी मुख्यमंत्री, और केंद्र में भी भाजपा की ही सरकार थी अटल बिहारी वाजपेयी प्रधान मंत्री थे। मोदी को इन दंगो के लिए जिम्मेदार उनके विरोधियों ने ठहराया और माया कोडनानी और अन्य लोगो पर मुक़दमे  भी चले। लेकिन 2007 में गुजरात में जब फिर विधान सभा चुनाव हुए तो मोदी को ही वहाँ की जनता ने गुजरात की गद्दी थम दी, तो समझिये की इस देश में दंगो का मतलब आखिर होता क्या है।
बात 1984 दिल्ली सिख के दंगो की हो, 2002 के गुजरात दंगो की हो या फिर 2013 में मुजफ्फर नगर के दंगो की हो, इस सबको लेकर एक ही बात कही गयी इतने सिख मारे गए, इतने मुस्लिम मारे गए या इतने हिन्दू मारे गए, लेकिन किसी ने ये नहीं कहा की इतने भारतीय नागरिक मारे गए। क्योंकि साम्प्रदायिकता ही इस देश में लोकतंत्र का मतलब हो चूका है, या ये कहे की इस धर्मनिरपेक्ष देश में नेता अलग -अलग धर्मो के लोगो लो लडवा कर गद्दी पाने का हथियार बनाते हैं। जैसे गुजरात 2002 के दंगो को कोंग्रेस आज भी अपना चुनावी हथियार बना रही है और भाजपा 1984 के सिख दंगो को, और इस देश में दंगो के बाद हुए चनावो का इतिहास भी यही बताता है की जिनपर दंगे करवाने के आरोप लगे उन्ही को जनता ने गद्दी दी, बात 1984 की हो या 2002 की, हालही में मुजफ्फरनगर में हुए दंगो को अपना चुनावी हथियार बनाने में लगी है।
दरअसल देश का नेतृत्व करने वाले नेताओं की पहचान सेक्युलर होने के बजाय कम्युनल होती जा रही है। बात भाजपा के पीएम् पद  उम्मीदवार मोदी की करे तो उन पर विपक्षी पार्टियां मुश्लिम विरोधी होने का आरोप लगाती रही है, और मोदी भी अपनी इस मुश्लिम विरोधी छवि को मिटाने की कोशिश  करते है, लेकिन वे कभी मुश्लिमो का विश्वास जीत नहीं पाये,  कुछ समय पूर्व मोदी ने एक मुश्लिम संगठन से पुछा  था की मुश्लिमो का विश्वास कैसे जीता जा सकता है, और उनका जवाब सीधा था की 2002 के दंगो के लिए माफ़ी  मांगे चूंकि आप उस राज्य के मुख्यमंत्री उस दौर में थे।  हालांकि अब भाजपा माफ़ी  मांगने का यह उपदेश  मुज़फ्फरनगर दंगो  के बाद मुलायम सिंह को देने लगी है।  लेकिन दूसरा सच यह भी है की हिन्दुत्व भाजपा का मूल वोटबैंक है, और इस देश में ज्यादा वोट भी हिन्दुओ के ही हैं, तो मोदी माघ्ी क्यों मांगें? भाजपा हिन्दुत्व विचारधारा से निकली पार्टी है, इसलिए हिंदुओ को कभी नाराज नही कर सकती, जब भी चुनाव आते हैं राम मंदिर का जिन्न बाहर आ जाता है, भले ही भाजपा राम मंदिर के निर्माण को अपना चुनावी एजेंडा कहने से इंकार करती रही हो लेकिन हिडन ही सही यह मुद्दा भाजपा का सबसे बड़ा  हथियार तो है ही, और भाजपा इस अजेंडे को चुनावी मौसम में विहिप जैसे अपने संगठन से करवाती है, और विहिप की 84 कोसी यात्रा शुरू हो जाती है,
क्या इस देश में कोई ऐसा नेता है जो एक मंच से पूरे देश को एक साथ यानि किसी धर्म का नाम लिए बिना सम्बोधित कर सके? शायद नहीं!  दूसरी तरफ सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस भी खुद को हमेशा सेक्युलर कहती आयी है, लेकिन साम्प्रदायिकता से इस पार्टी की भी बड़ी दोस्ती है, गांधी और परिवार वाद के नाम से हिन्दू वोट कांग्रेस को मिलते आये है लेकिन मुसलमानो को लेकर कांग्रेस सांप्रदायिक लगने लगती है। गांधी से गोधरा हत्याकांड़ का जिम्मेदार भाजपा को बता डालती है।  तक देश में सबसे ज्याद समय तक राज करने वाली कांग्रेस की सरकार ने मौजूदा दौर में देश में महगाई और भ्रष्टाचार की स्थितियों को पैदा किया है, इसलिए कांग्रेस का चुनावी एजेंडा विकास न रेह्कर परिवारवाद और हिन्दू मुस्लिम वाला ही नजर आता है। इसका उदाहरण मात्र है कांग्रेस पार्टी के युवराज और पीएम उम्मीद वार राहुल गांधी का ताघ चुनावी भाषण जिसमे उन्होंने कहा की जिन लोगो ने मेरे पापा और दादी को मारा वो मुझे भी मार डालेंगे। इसलिए मैं डरता हूँ, लेकिन इस देश की सच्चाई यह है भी या नहीं की आखिर इस देश में डरता कौन है? नेता या दंगो के शिकार हघरो लोगो के परिवार? जिनके घरो में एक साथ कई लोगो की जान चली  जाती है, या वो नेता जो इन दंगो को अपनी चुनावी रोटी समझते है, अब तय इस देश की जनता को करना है की उनका भविष्य कैसे सुरक्षित हो  सकता है,

शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2013

पत्रकारों की एक नई जमात विलुप्ति की कगार पर


कृपया पत्रकारिता को ग्लेमर समझने की भूल ना करें। दरअसल टेलीविजन के इस दौर में जिस तरह से पत्रकार बनने का चलन शुरू हुआ है उसमे हर कोई पत्रकार बनता जा रहा है। मैने तो सुना था कि पत्रकार और कलाकार किसी फैक्टी में नही बनाये जाते लेकिन जिस तरह एक दिन से लेकर साल तक पत्रकार बनाने की गारंटी दी जा रही है वह सच में लोकतंत्र के इस चैथे खंभे जर्जर बनाता जा रहा है।
आदरणीय राजेन्द्र माथुर कहते थे कि जो नेता कहे वो सूचना है.. जो कैमरा दिखाये वो तकनीक  और जो इसके पाछे का सच दिखाये वो पत्रकार है तो क्या आज के दौर में क्या वो वक्त आ गया है जब सूचना और तकनीक ही पत्रकारिता का मापदण्ड़ रह गई है। और पत्रकार बनाने का ये कारोबार खुद शुरू किया है उन्ही मीडिया संस्थानों ने जो खुद को राष्ट्रीय मीडिया कहने से नही चूकते हैं। और उन्ही फैक्ट्रियों  से निकली ऐसी ही पैदावार लाकतंत्र के चैथे खंभे को खोखला करता जा रहा है..... जब से पत्रकारिता में टेलीविजन आ गया तब से खबरों की खरीद फरीख्त होने लगी है। जनता पत्रकारिता को एंटरटेनमेंट तथा पत्रकारों को एंटरटेनर समझने लगी  है। अर्थात पब्लिक परसैप्शन मीडिया अपनी विश्वसनीयता खोती जा रही है। इस मामले में टेलीविजन बहुत आगे निकल चुका है। में तो कहता हूं टीवी को जर्नलिज्म ना माना जाय इसे मात्रा चलचित्र दिखाने की मशीन माना जाए। जिस के दम पर ये छाया हुआ है। भले कागजी पत्रकारिता का भी कोई सुनहरी दौर नही है। समाज में अपराधी, और भ्रष्ट प्रवृत्ति के लोग कैसे हमारे लीड़र बन जा रहे हैं? कैसे चुनाव जीत जा रहे हैं ? क्या इसमे आज के दौर की जर्नलिज्म का फेल्योर नही हम उनका असली चेहरा समाज के सामने नही दिखा पा रहे हैं। हम उन्हें उनके असली रूप में प्रस्तुत नही कर पा रहे है। क्यों हम उन्हें टेलीविजन की उस चर्चा में बुलाकर सम्मान देते है जिसमें उन्ही के अपराधों और भ्रष्टाचारों पर चर्चा हो रही होती है। क्या इससे जनता इससे गुमराह नही होती। क्या मीडिया संस्थान अपनी इकनोमी  बनाने और कार्पोरेट के दबाव में अपनी लाकतांत्रिक जिम्मेदारी को भूलती जा रहे है । मेरे जहन में कई सवाल है जिनमें से कई सवाल यह लेख टाईप करते वक्त याद नही आ रहे क्योकि थोडी अनुभव लिखने का कम है। चुनने का तरीका तो इस देश में बद् से बदतर होता जा रहा है चाहे वो नौकरशाही हो, राजनीति हो या मीडिया,,,योग्य पत्रकारों को कोई नौकरी देना नही चाहता सभी अपनी लाइन डाईवर्ट कर रहे हैं मेरे अधिकतर दोस्त कर चुके हैं मैं ही किसी तरह टिका हुआ हूं। युवा पत्रकारों की एक नई जमात विलुप्ति की कगार पर है। क्या ये सरकार की जिम्मेदारी नही कि लोकतंत्र की मजबूती के लिए युवा एव योग्य पत्रकारों को प्रोत्साहन दे। जिससे उनकी रोजी रोटी भी चल सके । जिससे कि कार्पोरेट के चंगुल से मीडिया आजाद हो खुलकर अखबार सच छापे,, कोई खबर ना दबे। देश में कोई ऐसा अखबार नही जो जनमुखी पत्रकारिता कर रहा हो। खबरें एजेंसी और गूगल सर्च पर निर्भर है। ग्रांउड जीरो पर जाने जैसी तो कोई बात ही नही सारी जनकारी सूत्र ही देते हंै। ये तथाकथित पत्रकार मौसम की सूचना भी अपने सूत्रों से मांगते है। जैसे कि खबरों का अकाल पड गया हो पूरे दिन एक ही खबर, कार्पोरेट के इर्द -गिर्द सारी खबरें और इस सबके इतर सच यह भी है कि जैसे कि इस देश में किसी के साथ अन्याय ही ना हो रहा हो, कोई किसान आत्महत्या ही न कर रहा

बिना बीरप्पन के भी फलफूल रहा है चन्दन तस्करी का खेल

        सुनील रावत की रिपोर्ट..................
18 अक्टूबर 2004 को पुलिस ने कुख्यात चन्दन तस्कर वीरप्पन को मार गिराया, जिसे सरकार ने बड़ी उपलब्धि बताया और दावा किया था कि अब चन्दन की तस्करी रुक जाएगी। लेकिन उसके बाद डीआरआई ने साल दर साल जो आंकड़े छापे उसने सबको हैरत में डाल दिया, आंकड़ो के मुताबिक 2005-2006 में डीआरआई लाल चंदन की 500 मीट्रिक टन जब्त किया, 2006-2007 में, यह 700 मीट्रिक टन हो गया था और 2007-2008 में, दौरे दोगुनी. लेकिन 2008-2009 में, यह पहले से ही लगभग 1000 मीट्रिक टन तक था और आज 2013 में भी चन्दन की तस्करी की गति में कोई कमी नहीं आई है। दिल्ली में तुगलकाबाद और आईजीआई एयरपोर्ट पर भी तस्करी की कई खबरें जगजाहिर हुई है। सूत्रों के अनुसार जितनी चन्दन पकडी जाती है उससे सौ फीसदी चन्दन को सफलतापूर्वक तस्करी द्वारा भेजी जाती है। इस तस्करी में सम्बन्धित विभाग के अफसरों की मिलीभगत से भी यह काम किया जाता है। भारत के कई बड़े बन्दरगाहों और ड्राईपोटों से चन्दन की लकडी  निकाली जा रही है।

 सूत्रों अनुसार दिल्ली में चन्दन की तस्करी का मास्टर माइंड़ गुड़गांव में रहता है। अभी हालही में आईसीडी तुगलकाबाद से  दो कन्टेंर चन्दन की लकडी के हांगकांग भेजें गये। पूछताछ के बाद डीआरआई ने ये कन्टैंनर दिल्ली वापस मंगा लिया है। जिनमें चन्दन की लकडी मौजूद है।
 वर्ष 2013 की बात करे तो अखबारों में छपी रिपोर्टों के अनुसार  तस्करी के मामले कुछ इस तरह हैं।
4 फरवरी 2013-मुंबई के ठाणे में तस्करी के लिए ले जाई जा रही 2 करोड़ की चन्दन बरामद की गयी।
17 मार्च 2013- पीलीभीत जिले के पूरनपुर के पास जंगल में पुलिस ने लगभग 15 करोड़ रुपये मूल्य की चंदन की लकड़ी बरामद की।
13 अप्रेल 2013 - मुंबई के उरण के चिर्ले गांव में छापा मारकर नवी मुंबई पुलिस की क्राइम ब्रांच टीम ने बेशकीमती लाल चंदन से भरे आठ कंटेनरों को अपने कब्जे में ले लिया। इस मामले में सभी आरोपी फरार हो गये। आठ बड़े कंटेनरों में लदा लाल चंदन का यह कंसाइनमेंट अरब देशों के लिए भेजा जा रहा था। जिसकी कीमत करोडो में बतायी गयी।
15 जून 2013 - नवी मुंबई स्थानीय क्राइम ब्रांच ने 66 लाख रुपये के कीमत की लाल चंदन की एक बड़ी खेप जब्त की है। इस खेप को विदेश भेजने के फिराक में दो तस्करों को गिरफ्तार कर लिया है।
16 जुलाई 2013-लाल चंदन की तस्करी में सबसे बड़ा भंडाफोड़, प्याज के बहाने दुबई भेजे जा रहे लाल चंदन से भरे 8 कंटेनर जब्त  100 टन से अधिक की बरामदगी, अंतरराष्ट्रीय बाजार में 100 करोड़ रुपये से अधिक की कीमत
19 अगस्त 2013- चैन्नई के कोयंबटूर जिले के पोल्लाची के समीप एक गोदाम से पुलिस ने करीब 30 टन चंदन की लकड़ी जब्त की। इस मामले में छह लोगों को गिरफ्तार भी किया गया। माना जा रहा है कि चंदन की इन लकडियों की तस्करी कर केरल ले जाया जा रहा था।
8 सितम्बर 2013- छत्रापति शिवाजी इंटरनैशनल एयरपोर्ट पर तस्करी की घटनाएं रुकने का नाम नहीं ले रही हैं। ताजा मामले में मुंबई एयरपोर्ट के सुरक्षा अधिकारियों ने चंदन की तस्करी के आरोप में जेन जिटेंग नामक शख्स को गिरफ्तार किया है। उसके पास से 60 किलो चंदन बरामद किया गया।
26 सितम्बर 2013- गुप्त सूचना के आधार पर पनवेल वन विभाग ने पुलिस की सहायता से पनवेल के एक गांव के पास खड़े कंटेनर पर छापा मारते हुए करीब डेढ़ करोड़ रुपये से भी अधिक मूल्य का 10 मेट्रिक टन लाल चंदन बरामद कर लिया है।
21 अक्टूबर 2013  -डीआरआई ने चन्दन की तस्करी से जुडे एक बड़े रैकेट का पर्दाफाश करने का दावा किया।
 अधिकारियों ने कई गोदामों पर छापा मारकर भारी मात्रा में चन्दन की लकड़ी जब्त की है। विभाग ने दिल्ली के अलावा जयपुर में भी छापे मारकर विदेशी नागरिक सहित पांच लोगो को अरेस्ट किया। गिरफ्तार आरोपियों की पहचान कमल नेगी (37) दलजीत सिंह (28) सौरभ चोपड़ा (28) मयूर रंजन उर्फ विजय (27) और थाईलैंड निवासी योदिंग(47) के रूप में हुई है। सूत्रों का कहना है कि इनमे से सौरभ चोपड़ा को सेशन कोर्ट से जमानत मिल गयी है। बाकी चारांे आरोपी न्यायिक हिरासत के तहत जेल में बंद हैं।
सूत्रों के अनुसार डीआरआई को सूचना मिली थी कि दिल्ली में चन्दन के तस्करों ने अलग-अलग गोदामों में भारी मात्रा में चन्दन की लकड़ी छिपाकर रखी हुई है। चन्दन की लकड़ी का यह खेप अवैध रूप से विदेश भेजी जानी थी। दिल्ली के अलावा जयपुर में भी भारी मात्रा में चंदन की लकड़ी छिपाकर रखी हुई है। इस पर डीआरआई अधिकारियों ने दिल्ली में पुरानी सब्जी मंडी इलाके में स्थित केदार बिल्डिंग पर छापा मारा। छापे के दौरान बिल्डिंग से 14.5 किलो लाल चन्दन की लकड़ी के अलावा 75.8 किलो ब्राउन कलर की चन्दन की लकड़ी बरामद की। छापे के दौरान शिव कुमार जोगी नामक शख्स ने दावा किया की यह लकड़ी उसने 10 लाख रूपये में खरीदी है। लेकिन वह कोई लिखित दस्तावेज नहीं दिखा पाया। डीआरआई ने यहाँ से 14 लाख 50 हजार रूपये की नगदी भी जब्त की।
डीआरआई अधिकारियों ने वजीरपुर इलाके में स्थित गोदाम पर छापा मारकर भारी मात्रा में चन्दन की लकड़ी जब्त की। गोदाम से चन्दन की लकड़ी  के 95 बड़े लट्ठे 251२छोटे टुकडेघ्, चन्दन की लकड़ी के टुकडो से भरे 213 बैग,108 छोटे लकडी के छोटे टुकडेए 80 बैग चन्दन की लकड़ी का पाउडर, 89 बैग चिप्स, 44 बैग बुरादा जब्त किया। टीम ने पीतम पूरा में मयूर रंजन के घर से छापा मारकर एक्सपोर्ट से सम्बंधित दस्तावेज जब्त किये। डीआरआई अधिकारियों ने होगंकोंग के कस्टम विभाग से चन्दन की लकड़ी के तस्करी के सम्बन्ध में जानकारी पता की तो उन्हें पता चला कि 27 जून 2013 को उन्होंने इंडिया से भेजी गयी 17,157 किलो चन्दन की लकड़ी बरामद की थी। जब्त की गयी लकड़ी की कीमत 4 करोड़ के आसपास बतायी गयी है। अधिकारियों ने जयपुर में भी छापे मारकर चन्दन की लकड़ी की तस्करी करने के आरोप में एक विदेशी सहित पांच लोगो को अरेस्ट किया। आरोपियों का राममनोहर लोहिया हाॅस्पिटल में मेडिकल करवाने के बाद उन्हें दरिया गंज थाने के लॉकअप  में रखा गया था। यहाँ से सभी आरोपियों को सम्बंधित कोर्ट में पेश किया गया।
24 अक्टुबर 2013- मुंबई एयरइंडिया ने चंदन की लकड़ी की तस्करी के आरोप में दो कर्मचारियों को निलंबित कर दिया गया और मामले की जांच के आदेश दे दिए हैं। एयरइंडिया के दो विमान परिचारकों मिलिंद दावणे और निधिन कोरोह को कस्टम की वायु खुफिया इकाई ने इंदिरागांधी हवाईअड्डे पर रविवार को गिरफ्तार किया। मुंबई निवासी ये परिचारक 56 किलोग्राम चंदन की लकडी हांगकांग भेजने की कोशिश कर रहे थे। तस्करी का यह मामला उस समय प्रकाश में आया जब एक खुफिया जानकारी के बाद इनके सामान को एक्स-रे मशीन से गुजारा गया। एयरइंडिया के प्रवक्ता ने कहा, दो विमान परिचारकों के चंदन की लकड़ी की तस्करी के मामले में पकड़े जाने के बाद हमने इन्हें निलंबित कर दिया है और इनके खिलाफ जांच भी शुरु की जा चुकी है। यदि ये परिचारक जांच में दोषी पाए जाते हैं तो इनके खिलाफ कड़ी अनुशासनात्मक कार्रवाई की जा सकती है।
इन 2013 की घटनाओं को परत दर परत हम आपके सामने इसलिए रख रहे है क्यों की चन्दन की तस्करी का खेल लगातार खुलेआम गति पकड़ता जा रहा है और इसका फायदा तस्कर ही नहीं बल्कि जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग भी कर रहे है एयर इंडिया के दो क्रू मेम्बर का पकड़ा जाना इसकी पुष्टि करता है, पहले भी तुगलकाबाद आई सी डी जैसी जगहों पर ऐसे मामले पकडे जा चुके हैं।
चंदन और लाल चंदन दुर्लभ और नायाब है. यह वास्तव में सोने से भी अधिक मूल्यवान है. कुख्यात चंदन तस्कर वीरप्पन के आस - पास नहीं होने के बावजूद, लाल चंदन विलुप्त होने की कगार पर है.उसे पुलिस द्वारा 2004 मार गिराया गया था। पहले वीरप्पन चंदन जंगल के राजा के रूप में जाना जाता था। लेकिन उनकी विरासत जारी है. चंदन की एक बहुत महगी और धार्मिक महत्वपूर्ण किस्म लाल चंदन विलुप्त होने की कगार पर है। कहा जाता है आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु सीमा चंदन की इस विशेष किस्म के लिए मशहूर है चीन से यह 18वीं सदी में लाल चंदन फर्नीचर का एक टुकड़ा 35 मिलियन की की कीमत में मिलता था। लेकिन अब यह लाल चंदन मूल के अपने देश से तेजी से गायब है। इसके निर्यात पर प्रतिबंध के बावजूद, लकड़ी चीन और जापान के लिए बड़ी मात्रा में तस्करी द्वारा भेजी जाती है। लकड़ी तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और मणिपुर में एक राजनीतिक रूप से जुड़े माफिया इसको चला रहे हैं। राजनीतिक दलों के नेता दिल्ली, कोलकाता, आंध्र प्रदेश और चेन्नई से चन्दन की तस्करी में लिप्त है। वित्त मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि यह चन्दन तस्करी  10,000 करोड़ रुपये बाजार है। देश भर के  बंदरगाहों में डीआरआई बरामदगी पिछले चार वर्षों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।