मेरी ब्लॉग सूची

बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

संघ सरकार की चाल पकड़ लीजिये !


देशविरोधी नारेबाजी का इतना दुःख होता तो बीजेपी की कश्मीर सहयोगी पीडीपी इस नारे को रोज दोहराती है। खतरा तो विचार से होता है जो संघ को जेएनयू के छात्रोँ से दिख रहा है और यह उसके प्रसार में बाधा भी। अफ़सोस सिर्फ कन्हैया के गिरफ्तार होने पर भी होता है नारे लगाने वालों को क्यों नही पकड़ पायी सरकार। हर किसी को कन्हैया के गिरफ्तारी से ठीक पहले दिए उस भाषण को सुनना चाहिए जो जिसमे उसने उसने संघ पर हमला बोला था। देश की तमाम शिक्षण संस्थाओ में हो रहे भगवा दखल पर चोट की थी।
रोहित वेमुला की मौत की घटना को दोहराया था। जहाँ उसने स्मृति ईरानी की उन चिट्ठियों का जिक्र किया था जो उन्होंने छात्रों पर कार्रवाई करने के लिए वीसी को लिखी थी। देश के विरोध में नारेबाजी वालों पर कार्रवाई हो हर कोई चाहता है लेकिन संघ सरकार की उस चाल को भी पकड़ लीजिये जिसमे गृह मंत्री एक फर्जी ट्वीट के जरिये पूरी जेएनयू को आतंकी हाफिज सईद से जोड़ देते हैं।

सवाल देशद्रोह से कई बड़ा उस चाल का है जिसमे जनता को यह सन्देश देना चाहती है कि वह सबसे बड़ी देशभक्त है लेकिन निशाना उस विचार पर है जो देश में संघ के प्रसार में बाधा है। इसको समझने के लिए आपको मद्रास के पेरियार स्टडी सर्कल पर प्रतिबन्ध से लेकर, एफटीआईआई पुणे, रोहित वेमुला का मामला और वीएचयु के गांधीवादी प्रोफ़ेसर संदीप पांडेय पर हुई कार्रवाई को समझना होगा। इंडियन एक्सप्रेस की खबर बताती है कि जेएनयू का नया वीसी चुना गया व्यक्ति संघ से जुड़ा रहा था। कुछ ही समय पहले जब बाबा रामदेव को जेएनयू में छात्रों में बीच एक सभा करने के लिए भेजा जा रहा था तो छात्रों ने यह कहकर इंकार कर दिया था कि उन्हें धर्म के आधार पर ज्ञान नही चाहिए। डीयू में सुब्रमण्यम स्वामी को इसी तर्ज पर राममंदिर से सम्बंधित सभा के लिए भेज गया वहां भी जोरदार विरोध हुआ।

दरअसल देश के तमाम शिक्षण और ऐसे संस्थान जहाँ से देश की नयी पौध निकलती है वहाँ कब्ज़ा किया जा सके तो संघ के प्रसार की राह और भी आसान हो जायेगी। संघ के लिए पहला ऐसा मौका है जब जाँच एजेंसियां उसकी सरकार के इशारे पर चलेंगी, पुलिस उसके हाथ में है, यांनी समूची सत्ता अगर उसके हाथ में है तो देश के लोग उसकी देशभक्ति के झांसे में आराम से आ जायेंगे, जो जेएनयू मामले में दिख भी रहा है।

शनिवार, 2 जनवरी 2016

हिन्दू राष्ट्रवादी संघ बदला है तो पाक राष्ट्रवादी आतंक की राह पर क्यों जा रहे हैं



भारत और पाकिस्तान हमेशा बातचीत की औपचारिकता निभाते हैं लेकिन पाक समर्थित आतंकवाद उसे चौपट कर देता है। मोदी और शरीफ ने फिर कदम बढ़ाया ही था कि पठानकोट हमले ने दोनों को बैकफुट पर ला दिया है। भारत और पाकिस्तान की सबसे बड़ी समस्या यही रही है कि एक तरफ उनके सामने गरीबी, भूखमरी से निपटने और आर्थिक सम्पन्नता की जरूरत है तो दूसरी तरफ दोनों देशों के अंदर मौजूद राष्ट्रवादी संगठन जो लोगों को राष्ट्रवाद के नाम पर एक दूसरे के लिए नफरत की पैदावार बढ़ाते जा रहे हैं। पंजाब के पठानकोट में जिन्होंने आतंक मचाया वह पकिस्तान से आये थे। एक आतंकी की माँ ने तो अपने राष्ट्रवादी आतंकी बेटे को मरने से पहले खाना खाने की सलाह भी दी। IB की रिपोर्ट की माने तो मोदी और शरीफ की मुलाकात के बाद की पाकिस्तान के अंदर हमले की साजिश रची गई।

पाकिस्तान की सबसे बड़ी समस्या धर्म की कट्टरता रही है जहाँ धर्म के नाम पर जैश-ए-मोहम्मद,हिज्बुल मुजाहिद्दीन, और लश्कर जैसे आतंकी संगठन बन चुके है जो हर बार बातचीत को अस्थिर कर देते हैं। ये सभी आतंकी संगठन राष्ट्रवाद के नाम पर राष्ट्र के विकास में अड़चन पैदा तो करते ही है साथ ही एक बड़ी आबादी को बहका देते हैं और शायद यही कारण है कि पाक सरकार चाह कर भी इन आतंकी संगठनों पर लगाम नही लगा पा रही है। हाफिज सईद पकिस्तान में राष्ट्रवादी सभाएं कर रहा है, भारत के खिलाफ जहर उगलकर लोगों को अपना अनुयायी बना रहा है।

ऐसा नही कि यह समस्या पकिस्तान की ही है भारत भी आज़ादी के दौर से ही इस समस्या का शिकार रहा है। देश के राष्ट्रवादी संगठन आरएसएस ने तो अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने से ज्यादा मुसलमानो से दो-दो हाथ करने को तरजीह दी। गांधी जी की हत्या भी इसी राष्ट्रवाद की एक झलक थी। आज भी भारत में बड़ी संख्या में भगवा संगठन जो सोशल मीडिया से लेकर खुलेआम नफरत फैला रहे हैं। लेकिन उससे भी आगे का सवाल यह है कि आज जब देश में सबसे बड़े हिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा की सरकार आई है तो वह खुद को बदलने को तैयार है मोदी ने चुनाव से पहले भले ही पाक को लव लैटर के बजाय दूसरी भाषा में जवाब की बात कहकर वोटवादी राष्ट्रवाद फैलाया। लेकिन अंततः वह भी हकीकत से रूबरू हुए।

मोदी ने पाक जाने का साहसी कदम भी उठाया। कहने का तात्पर्य यही है कि संघ की अनुमति के बिना मोदी का ऐसा करना सम्भव न था। आरएसएस के सिद्धान्त बदले हैं या उसे जिम्मेदारी ने बदल दिया है। क्योंकि राष्ट्रवादी  संघ एक दौर में विदेशी बाजार का दुश्मन था लेकिन आज उसी का स्वयंसेवक दुनिया की यात्रा सिर्फ विदेशी बाजार को लाने के लिए कर रहा है।

विकास की अवधारणा को लेकर संघ बदला है तो पाकिस्तानी राष्ट्रवादी क्यों नही। क्यों राष्ट्रवाद और धर्म के नाम पर पकिस्तान आतंक का गढ़ बन गया है। क्या उन्हें अपने बच्चों के भविष्य की चिंता नही। क्या वो दुनिया की तकनीक की दौड़ में नही शामिल होना चाहते। वो नही चाहते कि कोई जुकरबर्ग, पिचाई या जॉब्स पकिस्तान में पैदा हो

मंगलवार, 14 जुलाई 2015

संवैधानिक संस्थाओं के जरिये संघ की घुसपैठ

हमारे शिक्षण संस्थानों में धार्मिकता को क्यों जगह दी जानी चाहिए अगर शिक्षा का मतलब देश  का विकास है तो, विकास तो अच्छे इंजीनियर, डॉक्टर, एवं अफसरों के जरिये होगा तो शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक सामग्री पढाई ही क्यों जाये। यह सवाल सरकार के उस फैसले के बाद उठा जिसमे मदरसों में विज्ञान, मैथ्स अन्य विषयों के बिना मान्यता न देने की बात कही गई, बात भी सही है  क्या बिना धार्मिक कर्मकांड के स्कूल, विद्यालय नही चल सकते?  बात मदरसो की ही नहीं संघ द्वारा संचालित सरस्वती शिशु मंदिर जो  देश में शिक्षा के नाम पर अपनी बड़ी उपलब्धि बताई जाती हैं, लेकिन क्या उनमे हिन्दू धर्म के अतिरिक्त किसी दूसरे धर्म बच्चे पढ़ सकते हैं ? या मदरसों में किसी हिन्दू का बच्चा पढ़ सकता है?  मतलब सीधा है कि शिक्षा संस्थानों के जरिये धर्म का पाठ पढ़ना पहला उद्देश्य है और सफल डॉक्टर या इंजीनियर बनाना बाकी की बात है। अब तो देश में जिसकी सरकार होगी उसी की विचारधार से जुड़े संगठनो के छात्रों को एडमिशन आसानी से मिलने लगा है।
देशभर के कॉलेजों में भाजपा संघ जे जुड़ा संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद एबीवीपी अपनी विचारधारा का जमकर प्रचार करती है, उसी तरह एनएसयूआई कांग्रेस की और आइसा वाम धारा का, जिनका पहला मकसद होता है विचारधार का प्रचार करना लेकिन आईआईटीएम में जब एक संगठन ईवी रामासामी पेरियार के नाम पर उभरा तो संघ की सरकार ने उस पर प्रतिबन्ध लगा दिया,  क्योंकि पेरियार का नाम रूढ़िवादी हिंदुत्व के विरोधी के रूप में लिया जाता है और पेरियार की सच्ची रामायण,नामक किताब में रामायण के किरदारों पर आपत्तिजनक बातों को लेकर विवादों में भी रही इससे बड़ा सवाल तो विचारधारा के प्रसार का है।
दरअसल ये सारी बातें उस मुद्दे की पृष्ठभूमि को दर्शाती है जिसको लेकर देशभर में एक बहस छिड़ी हुई है कि वर्तमान सरकार संविधान द्वारा बनाई गई सांस्कृतिक, शैक्षणिक संस्थाओं को एक विशेष विचारधारा से जुड़े लोगों के हाथों में सौपं रही है ? जिसमे एफटीआईआई पुणे ताज़ा उदाहरण है। अगर सरकार सच में इन संवैधानिक शिक्षण एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के जरिये देश को आगे ले जाना चाहती है है तो उनकी बागडोर ऐसे लोगों के पास क्यों नही दी जानी चाहिए जिनमे योग्यता हो, और तरक्की के लिए तो यही पहला कदम होना चाहिए लेकिन बिना योग्यता के अपने अयोग्य लोगो के हाथों में इनकी बागडोर देने का मतलब आखिर है क्या ? छात्र खुद जिसके नेतृत्व में पढ़ना नहीं चाहते।  इसमें सरकार अपने लोगों का निजी फायदा देख रही है या इसके पीछे कोई लम्बी सोच है?  लेकिन संदेह तब और गहरा हो गया जब अचानक देश के स्कूलों कॉलेजों के पाठ्यक्रमों में अचानक बदलाव होने लगे, राजस्थान सरकार ने तो विश्व विद्यालयों में फरमान जारी करवा दिया कि राकेश सिन्हा के द्वारा हेडगेवार (संघ संस्थापक) पर लिखी पुस्तक को  पढ़ाया जाना अनिवार्य कर दिया जाये।  इसी तरह संघ के महापुरुष हर जगह पाठ्यक्रम में शामिल किये जाने लगे। संघ की सरकार जिस तरह संवैधानिक संस्थाओं पर जिन लोगों को नियुक्त कर रही है उससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि सरकार को संस्थानों की भलाई से ज्यादा अभी उन पर कब्ज़ा जमाना है ताकि उन संस्थाओं के जरिये अपनी विचारधारा का प्रसार सरकारी नीतियों के बैनर तले लागू की जा सके। इसलिए इन संस्थाओ में योग्यता से ज्यादा विचारधारा वाला वाले व्यक्ति का होना अधिक आवश्यक है और पुणे का फिल्म ,टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया ( एफटीआईआई ) तो इसका एक छोटा सा उदाहरण है।
नई सरकार को देश की शिक्षा और भविष्य की दिशा की कितनी गंभीर इस बात का एहसास तो उसी दिन हो गया था, जब इस सरकार ने बमुश्किल 12वी पास की योग्यता रखने व्यक्ति के हाथों में पूरी शिक्षा नीति सौंप दी, चर्चा तो तब भी हुई थी लेकिन एक बहुमत से आई सरकार पर कौन सवाल उठा सकता था। दरअसल मोदी सरकार की मुश्किल यह है कि उसके किसी भी मंत्री के पास खुद का फैसला लेने का अधिकार दिया ही नही गया है, जो परदे के पीछे से संघ तय करेगा वही होगा, इसका अंदाजा आप तमाम शिक्षण संस्थाओ के पाठ्यकर्म में हो रहे बदलाओ को देखकर लगा सकते है कि कैसे अपने महापुरुषों को महान बनाया जा रहा है, अकबर भी अब महान नही रहा जगह महाराणा प्रताप ने ले ली। जब देश की पूरी शिक्षा नीति ही सरकार ने संघ को सौंप दी है तो पुणे का फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया (एफटीआईआई) में अयोग्य व्यक्ति को चेयरमैन बनाये जाने की बात पर कोई अफ़सोस नही करना चाहिए। बीते एक साल में संवैधानिक संस्थाओं में व्यक्तिओं को किस तरह नियुक्त किया गया इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सरकार ने भाजपा के प्रचारक मुकेश खन्ना को बाल फिल्म सोसिटी का अध्यक्ष बना दिया, हर हर मोदी घर घर मोदी का वीडियो बनाने वाले प्रह्लाद निहलानी को सेंसर बोर्ड का अध्यक्ष बना दिया। नेशनल बुक ट्रस्ट(एनबीटी) को पाञ्चजन्य के पूर्व संपादक बलदेव भाई शर्मा को सौंप दिया। भारतीय इतिहास अनुसन्धान जहाँ बड़े इतिहासकार नियुक्त किये जाते थे वहां भाजपा से जुड़े सुदर्शन राव को नियुक्त कर दिया।
तो सवाल संवैधानिक संस्थाओं के जरिये विकास का नही है बल्कि इनके जरिये भगवाकरण का है।

अगर मैं कहूँ कि दो सवालों का जवाब  एक ही हों तो ? आप मेरे एक सवाल पर ही सवाल खड़ा कर देंगे वो इसलिए क्योंकि जिस सवाल पर आप सवाल खड़ा करेंगे उससे आप भावनात्मक रूप में जुड़े होते हैं और आपको उस साल में कुछ भी गलत नही दिखता है। पहला सवाल यह है कि दुनिया के अनेकों धार्मिक संगठनो के मूल में है क्या ? उनका पहला मकसद क्या है ? शायद यही कि हर कोई संगठन किसी हिस्से पर सिर्फ अपना अधिकार चाहता है और उस अधिकार को पाने का रास्ता वो जो चुनती है वह इंसानियत के लिए बहुत खतरनाक है। वह आतंक का रास्ता है जिस पर आईएसआईएस चल रहा है,  और शायद और भी कई संगठन। भारत में हिंदूवादी संगठन आरएसएस पर भी गांधी की हत्या के आरोपों से लेकर मलेगावों धमाकों तक में नाम आने पर यही कहा गया कि रास्ता इनका भी कही वही तो नही।  दूसरी और इस्लामिक स्टेट भी दुनियां में खौफ की पहचान बन चुका है दुनिया के बड़े बड़े देशो के पढ़े लिखे युवा इसमें शामिल हो रहे हैं और वह सिर्फ राष्ट्रवाद के नाम पर, यही राष्ट्रवाद को जगाकर अपने से जोड़ने का काम हर कट्टरवादी संगठन कर रहे है। 

शुक्रवार, 29 मई 2015

1925 के सपने को जी रहा है संघ

 संघ  नहीं चाहता कि वह अब कभी इस सुनहरे सपने से जागे, जब  उसके हाथ में भारत है यानी सत्ता, संघ को अब देश में अपनी सोच स्थापित करने की प्रशानिक शक्ति मिल गई। जहाँ मोदी सरकार मौजूद है जिसके बातों में विकास है और परदे के पीछे संघ का एजेंडा, अब देश में, विदेशी पूँजी को लेकर संघ जो ईष्टइंडिया का उदाहरण देते थे सब मंजूर है। यानि अब देश में हिंदुत्व का विस्तार हो रहा है तो जिस बात का विरोध संघ वाजपेयी के दौर तक में करती रही वह खामोश है। लेकिन जिस तरह राहुल गांधी ने संघ की नब्ज पर वार किया तो वह उछल पड़ी, राममाधव भी इंदिरा गांधी तक को निशाना बनाने से नहीं चूके। क्योंकि संघ नही चाहता कि उसका अतीत लोगों तक पहुंचे, और इस बात का डर संघ को हमेशा रहता है कि लोग कहीं उनके राष्टवाद को न समझ जाएं। एक दौर में कैसे आजादी के आंदोलनों का विरोध संघ ने किया, कैसे अंग्रेजों की मुखबिरी करते रहे। और वे किस तरह फासीवाद के समर्थक है जो हिटलर को आदर्श मानते हैं। और साथ में यह भी कि आखिर क्यों 1925 में बना आरएसएस 1947 तक कहाँ गायब रहा। खैर गांधी की हत्या को लेकर तो संघ ने बहुत कोशिश कि गोडसे को देश भक्त दिखाने की और गांधी को देशद्रोही ठहराने की भले मोदी आज विदेशियों के लिए गांधी का गुणगान करते हैं क्योंकि गांधी के व्यक्तित्व को पूरी दुनिया जानती है। एक वक़्त नार्थ-ईस्ट में स्वयंसेवक मारा जा रहा था और गृहमंत्रालय संभाले लालकृष्ण आडवाणी बेबस दिखायी दे रहे थे । लेकिन मोदी सरकार में संघ बेबस नहीं बल्कि खुश है कि वह भी तो आवारा पूंजी की तर्ज पर कुलांचे मार सकता है, यानी हिन्दू आतंकवाद का कानूनी भय नहीं, हर मुद्दे पर सरकार साथ है, क्योंकि एक वक़्त वह था जब संघ के कारनामो पर सरकार उस पर प्रतिबन्ध लगा देती थी।
रमेश ओझा का संघ को लेकर पूरा लेख इस लिंक पर पढ़ें 
http://www.hindi.mkgandhi.org/g_hatya.htm
 सावरकर को जानें-समझें
ये लोग जिसको 'क्रान्तिवीर' के विशेषण से नवाजते हैं, वह विनायक दामोदर सावरकर लन्दन में रहकर 'अभिनव भारत' पत्रिका निकालते थे। भाषण तथा लेख की प्रभावी शैली होनेके के कारण कुछ युवक उनकी तरफ आकर्षित हुए थे। उनके अनुयायियों ने भूमिगत रहकर तोडफोड की कुछ कार्रवाइया! की थी, परन्तु अंग्रेजों के खिलाफ व्यापक वोंह वे नहीं कर सके थे। अन्ततः परिस्थिति ऐसी बनी कि, 'वी.डी. सावरकर खुद कोई जोखिम नहीं उठाते!' ऐसा असन्तोष उनके अनुयायियों में पनपने लगा। यदि अब भी कुछ नहीं किया, तो 'अभिनव भारत' पत्रिका बन्द हो जायेगी, ऐसी आशंका उन्हें होने लगी थी। तब उन्होंने जिन्दगी में पहली बार, और अन्तिम बार, एक छोटा-सा साहस कर दिखाया। उन्हें जब ब्रिटेन से भारत लाया जा रहा था तब फ्रान्स की सीमा में उन्होंने समुं में कूद कर भागने की कोशिश की थी। लेकिन मात्र 10 मिनट में ही सावरकर पकड लिये गये थे। हकीकत तो यह है कि सावरकर फ्रान्स की सीमा में भागने का गुनाह करके फ्रांसिसे सरकार के गुनहगार बनना चाहते थे, ताकि अंग्रेज सरकार की सजा से बच जाय। बाद में सावरकर माफीनामा लिखकर अण्डमान की जेल से रिहा हुए थे। अंग्रेज सरकार द्वारा निर्धारित मुद्दत तक वे रत्नागिरी जिले की सीमा से बाहर नहीं जायेंगे, ऐसा लिखित शर्तनामा उन्होंने अंग्रेजों को दिया था। वी. डी. सावरकर की इस 'महान क्रान्ति' के बाद तीन दशक तक भारत की आजादी के किसी भी आन्दोलन में उन्होंने भाग लिया हो या आजादी के लिए स्वयं कोई एक भी  आन्दोलन उन्होंने चलाया हो, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता।

गुरुवार, 7 मई 2015

कमजोर होता उदार लोकतंत्र

पत्रकारिता हो वकालत हो या सोशल एक्टिविस्ट, इनकी साख इस दौर में धूमिल होती जा रही है। इनकी साख को वही लोग सबसे ज्यादा चोट पंहुचा रहे हैं जिन पर एक उदार लोकतंत्र बनाये रखने की जिम्मेदारी है।  इनको लेकर एक मात्र यही परसेप्शन बनता जा रहा है कि यह मात्र अधिक पैसे कमाने का जरिया है।  इनको इनकी मूल भावना से ही दूर किये जाने का प्रयास  इस दौर में लगातार किया जा रहा है। क्योंकि अगर ये अपना काम अपनी मूल भावना में रहकर करे तो सत्ता की हनक में मदहोश राजनेता इनसे तिल्मिलाएंगे ही।  चाहे प्रधानमंत्री मोदी हो या केजरीवाल जब -जब जिन पत्रकारों ने इनके काम काज या इनको कटघरे में खड़ा किया उनको ये बिकाऊ या न्यूज़ ट्रैडर्स कहने से नही चुके।  लेकिन जब मोदी सरकार के एक साल पूरे होने पर जेटली ने उन पत्रकारों को कॉकटेल पार्टी में बुलाया तो खुद प्रधान मंत्री मोदी इनको शाबासी देने के लिए पहुंचे तो वही वही न्यूज़ ट्रेडर झटके में पत्रकार कैसे बन गए। यानि यही निरंकुशता कहलाती है जो अपनी मर्जी का नही वह असत्य है।
Liberal democracy

 हालही में प्रधानमंत्री ने जजों के एक समारोह में उन सामाजिक कार्यकर्ताओं  पर ही सवाल उठा दिए जो सरकार की निरंकुशता और इनकी सत्ता की हनक में टांग अड़ाते हैं। लेकिन अगर हिट एंड रन केस में आभा सिंह जैसी वकील याचिका डालकर इतनी मेहनत न करती तो सायद की आज इस केस के पीड़ितों को न्याय मिलने की उम्मीद रहती और न ही न्यायपालिका को लेकर लोगों का भरोषा इतना बढ़ता।    
उदार लोकतंत्र के रूप में इंडिया की साख को चोट लग रही है। जिस तरह ने कुछ समय से एनजीओ और मीडिया को नियंत्रित करने की कोशिश की है वह लोकतंत्र के लिए अच्छा नही है।  एनजीओ पर राष्ट्र विरोधी हरकतों का आरोप लगाना दुनियाभर में निरंकुश सरकारों की हरकतों में शामिल रहा है। वहीं, धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाने पर लेने की घटनाओं के बारे में ताकतवर पीएम की चुप्पी से देश-विदेश में अच्छा संकेत नहीं गया है। यही वह पहलू है, जहां मोदी शासन से सबसे बड़ा फर्क पड़ा है। दुनिया में कोई पूर्ण लोकतांत्रिक देश नहीं है, लेकिन कुछ और लोकतांत्रिक होने की कोशिश करना अच्छा माना जाता है। मोदी की लीडरशिप में भारत के पीछे लौटने का खतरा दिख रहा है। भारत में कई गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) के खिलाफ सरकार की कार्रवाई पर अमेरिका ने  भी चिंता जाहिर की है।
अमेरिका के भारत में राजदूत रिचर्ड वर्मा ने एक कार्यक्रम में कहा कि बदलाव के लिए शांतिपूर्वक काम करने वाले लोग सरकार विरोधी नहीं होते और देश की सुरक्षा को कमजोर नहीं करते, बल्कि वे बेहतरी की चाहत में सुरक्षा को मजबूत ही करते हैं। वर्मा ने कहा कि हाल की कुछ मीडिया रिपोर्टों पर उन्हें चिंता हुई है कि भारत में काम कर रहे कई गैर सरकारी संगठनों को चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। गौरतलब है कि मोदी सरकार ने अमेरिका के फोर्ड फाउंडेशन द्वारा भारत की कई एजेंसियों को मदद दिए जाने पर ऐतराज किया है और उसे निगरानी सूची में रख दिया है।
ग्रीनपीस इंडिया जैसे संगठनों को विदेशी मदद पर रोक भी लगाई है। सरकार ने विदेशी मदद पाने वाले 9,000 एनजीओ के लाइसेंस इस आधार पर रद्द कर दिए हैं कि इन संगठनों ने विदेशी सहायता कानून का उल्लंघन किया है लोकतंत्र चुनाओ से कहीं बढ़कर है मुक्त समाज को लगातार आप लोगों से जुड़े विषयों पर बहस और विचार करना चाहिए।  राजनीतिक फायदे की आड़ में हम सख्त सवालों से नही बच सकते हम केवल इसलिए बहस से नहीं बच सकते क्योंकि हमें जवाब पसंद नही हैं .. चाहे वो कानून या पॉलिसीज को बदलने की बात हो या फिर उन्हें चुनौती देने का मामला हो जो शांतिपूर्वक बदलाव लाने में जुटे हैं वे सरकार के खिलाफ नही हैं।


सजा नही रोटी से मिलेगा इन्साफ

इसे अब न्याय प्रणाली का दोष कहिये या भारत में सुपरस्टार होने का फायदा सलमान खान को हिट एंड रन केस में दोषी करार देने में अदालत ने तरह बरस लगा दिए  और तेरह बरस बाद सजा सुनाई भी गई तो जमानत मिलने में घंटाभर लगा लेकिन इन 13 बरस में इस हादसे के पीड़ितों ने अपना सब कुछ गँवा दिया किसी ने हाथ, पांव तो किसी ने ज़िन्दगी ही गँवा दी कोई अपनी बहन की शादी नहीं करवा पाया तो किसी के लिए दो जून की रोटी मुश्किल हो गई लेकिन इन सबके इतर सलमान खान ने इन 13 सालों आसमान की बुलंदी छू ली और अब 13 बरस बाद निचली अदालत ने सजा सुना भी दी तो पीड़ितों को न्याय मिलेगा कैसे ? और कब तक मिलेगा क्योंकि 13 साल निचली अदालत में ही लग गए तो अभी हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट बाकी है।  बड़ा सवाल यह भी है कि पीड़ितों को इंसाफ सलमान को जेल जाने से मिल जायेगा क्या, क्योंकि निचली अदालत में भी अभी तक इनके जीवन के गुज़र बसर की बहस तो हुई ही नही यानि इनकी मुवावजे की बात तो हुई ही नही।  इन 13 बरस में हादसे के पीड़ितों के हाल तो यह हो चुके है कि उनको सलमान की सजा में कोई दिलचस्पी रही ही नही उनके सामने तो दो जून की रोटी का सवाल आज भी मौजूद है और वो बार-यहकह भी रहे हैं कि उन्हें बस मुवावजा दिया जाये. इस दुर्घटना में अब्दुल्ला रऊफ शेख को अपनी टांग खोनी पड़ी थी। कहता है  'पिछले 13 साल में कोई भी व्यक्ति मुझसे मिलने नहीं आया। मैं छोटे-मोटे काम करके अपने परिवार को पालता था। मुझे अपनी जिंदगी के इस दौर में काफी परेशानी झेलनी पड़ी। हालांकि, मेरे मन में सलमान के प्रति किसी तरह की नफरत की भावना नहीं है। मैं अब भी उनकी फिल्में देखता हूं। ऐसा बोलने के लिए मुझपर किसी ने दबाव नहीं डाला। मेरे लिए मुआवजा दोषी को सजा दिलाने से ज्यादा अहमियत रखता है। बीमारी के कारण मैं काम नहीं कर पाता। 'अगर सलमान को जेल भेज भी दिया जाता है तो मुझे कोई फायदा नहीं होगा। इससे न तो मेरी टांग मुझे वापस मिलेगी और न ही मेरी परेशानियों में किसी तरह की कमी आएगी। इसकी जगह अगर वह मुझे मुआवजा देंगे तो मुझे कोई समस्या नहीं होगी।' शेख ने कहा कि जब उन्होंने दुर्घटना में अपनी टांग गंवाई थी, तब वह 22 साल के थे।
इस हादसे में नूरउल्लाह महबूब शरीफ की मौत हुई थी। उनकी पत्नी ने कहा, 'हमें कहा गया था कि हमें 10 लाख का मुआवजा मिलेगा। अब जब महंगाई इतनी तेज रफ्तार से बढ़ रही है तो इतने थोड़े से मुआवजे के पैसे का हम क्या करेंगे? अगर इसकी जगह उनके बेटे को नौकरी दे दी जाती तो उन्हें काफी लाभ होता।'
मुवावजा देने के लिए तो सलमान तो हरहाल में तैयार भी होंगे लेकिन एक और सवाल यह भी है कि अगर सलमान खान को ऊपरी अदालत अब इस दलील पर कि वह मनचाहा मुवावजा पीड़ितों को देने को तैयार है इसलिए उनकी सजा माफ़ या कम की जाये तो न्याय पालिका पर भी सवाल उठेंगे ही कि यहाँ तो न्याय खरीद लिया जाता है. हो जो भी लेकिन सलमान खान को सजा कम से कम ऐसी तो मिलनी ही चाहिए जिससे ये सन्देश जाये कि कानून सबके लिए सामान है और पीड़ितों को ऐसा न्याय इस रूप म मिले की वह अपनी बाकी की ज़िन्दगी अच्छे से गुज़र बसर कर सकें। जिस देश के संविधान में न्याय प्रथम अधिकार के रूप में शामिल किया गया है वहां हज़ारों ऐसे लोग है जो न्याय के लिए अदालत का दरवाजा तक नही खटखटा सकते वकील को देने के लिए ऐसे नही।  वहीँ सलमान को सजा सुनाने  में तरह साल लग गए  और बेल मिले में घंटा भर इसने एक बात तो साबित कर ही दी कि भारतीय लोकतंत्र में न्याय गरीबी और अमीरी को पहचानता है।
अपराधियों को सजा और न्याय तो दूर की बात है की बात है भारतीय संसद और न्यायपालिका अभी इसी बहस में उलझी हुई है कि जजों को चुना कैसे जाये  कोलेजियम से या  एनजेएसी  से।
.

गुरुवार, 23 अप्रैल 2015

मुनाफे में रोड़ा डालती नेट न्यूट्रैलिटी

भारत में नेट न्यूट्रैलिटी को लेकर क्यों छिड़ी है बहस
भारत में इंटरनेट निरपेक्षता या नेट न्यूटैलिटी को लेकर बहस उस वक्त शुरू हुई जब भारत की सबसे बड़ी टेलिकॉम कंपनी भारती एयरटेल ने अपना एक इंटरनेट प्लान एयरटेल जीरो शुरू किया। इस प्लान में एयरटेल ने अपने ग्राहकों को कुछ चुनिदा इन्टरनेट डेटा (एप्लिकेशन) के इस्तेमाल पर डेटा चार्ज मुफ्त कर दिया इस मुफ्त डेटा चार्ज का पैसा एयरटेल को एप्लिकेशन प्रदाता कंपनियां दे रही थी। इस प्लान के तहत ग्राहकों को केवल उसी एप्लीकेशंस या वेबसाईट ब्राउज करने की अनुमति थी जो एप्लीकेशंस प्रदाता कंपनियां एयरटेल के साथ जुड़ी थी। जिसका इंटरनेट जानकारों और उपभोक्ताओ ने यह कहकर जोरदार विरोध यह कहकर किया कि यह नेट न्यूटैलिटी के उस सिद्धान्त के खिलाफ है जिसके अनुसार आईएसपी यानी इंटरनेट सर्विस प्रोवाईडर द्वारा उपभोक्ता को सभी इंटरनेट कंटेट बिना किसी भेदभाव के समान रूप से इस्तेमाल करने की इजाजत होनी चाहिए। विरोध को देखते हुए इस प्लान में सबसे पहले जुडी एक बड़ी ई-कॉमर्स कंपनी फिल्पकार्ट को ग्राहकों को बड़ी संख्या में नेट न्यूटैलिटी के पक्ष में खडा देखकर एयरटेल के इस प्लान से हटने का फैसला करना पड़ा। इसके बाद भारत में सोशल मीडि़या से लेकर टेलीविजन की बहसों तक नेट न्यूट्रैलिटी पर कानून बनने तक की बात होने लगी। अब नेट न्यूट्रेलिटी को लेकर सभी इंटरनेट उपभोक्ताओं ने एकजुट होते हुए ट्राई को घेर लिया अब ट्राई ने एक पत्र जारी कर उपभोक्ताओं से 20 सवाल पूछे हैं और यह जानने की कोशिश की है कि भारत में नेट न्यूट्रैलिटी को किस तरह लागू किया जाये और साथ ही टेलिकॉम कंपनियों को ऑटीटी कम्पनियों के कारोबार से हो रहे मुनाफे से बचाया जाये।

क्या चाहती हैं टेलिकॉम(आईएसपी) कंपनियां ?
टेलीकॉम कंपनियों (आईएसपी) की सबसे बड़ी समस्या व्हाट्सऐप, लाईन वाईबर, स्काईप, फेसबुक मैसेंजर जैसी ओटीटी(ओवर द टॉप) कम्युनिकेशन कम्पनियों से है। जो एप्लिकेशन के जरिये करने वाली कंपनियां हैं जो उनके खडे़ किये गए इंफ्रास्ट्रक्चर का इस्तेमाल करके लोगों तक फ्री में मैसेजिंग, फ्री-वोइस कॉल जैसी सुविधाएं पंहुचाकर टेलिकॉम कंपनियों के रेवेन्यू मुनाफे में नुकसान पंहुचा रही हैं। टेलिकॉम कंपनियों का दावा है कि लोगों ने इन ऑटीटी के जरिये होने वाली फ्री मेसेजिंग और वॉइस कॉल को अपना लिया है जिससे उनकी फोन -कॉल और मैसेजिंग से होने वाली कमाई चैपट हो चली है इससे टेलीकॉम कंपनियों को सालाना 5 हजार करोड़ का नुकसान हो रहा है साथ ही उनका कहना है कि अगर यह जारी रहा तो टेलिकॉम कंपनियों का नुकसान अगले तीन साल में पांच गुना बढ़कर 24,000 करोड़ रुपए तक पहुंच सकता है। इससे खफा टेलिकॉम कंपनियां साल 2014 से ही ट्राई पर दबाव बना रही थी कि इन ओटीटी पर नियंत्रण किया जाये।
टेलिकॉम कंपनियों (आईएसपी) की दलील है कि उन्होंने अपने इंफ्रास्ट्रक्चर को बनाने के लिए बड़ी मात्रा में धन स्पेक्ट्रम खरीदने में लगाया है तथा सरकार को टैक्स भी देते हैं जबकि ऑटीटी कंपनियां मोबाइल ऐप के जरिये फ्री में करोडों कमा रही है। इसलिए टेलिकॉम कंपनियां चाहती हैं कि ऑटीटी जो रेवेन्यू अपने ग्राहकों से कमाती है उसका कुछ हिस्सा वह टेलिकॉम कंपनियां को भी दें। या इन कंपनियों को किसी तरह रेगुलेट किया जाये। टेलिकॉम कम्पनियां भी इन ओटीटी से पैसे वसूलना चाहती हैं

क्या कमाई का जरिया ढूंड रही है टेलिकॉम कंपनियां
भारत में ई-कॉमर्स यानी आनलाईन शोपिंग का चलन पिछले कुछ सालों में कई गुना बढा है और कहा जा रहा है कि 2020 तक भारत में ई-कॉमर्स का बाजार 50 अरब डॉलर्स तक पहुंच जायेगा। इसका प्रमुख कारण है भारत में इंटरनेट यूजर्स की लगातार बढती संख्या जो 30 करोड़ के पार पहुँच चुकी है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारत में बडी ई-कामर्स कंपनी फ्लिप्कार्ट की कमाई 4 अरब डॉलर्स स्नैपडील की 3 अरब डॉलर्स और अमेजोन की 1 अरब डॅालर पहुंची है। फिलपकार्ट ने इस साल के अंत तक 8 अरब डॉलर्स यानी 50,000 हजार करोड़ की कमाई का लक्ष्य रखा है। अब इंटरनेट सर्विस प्रोवाईडर टेलिकॉम कंपनियों को लग रहा है कि हमारे खडे़ किये गये ढांचे पर ई-कामर्स कंपनियां करोडों का कारोबार कर रही हैं इसलिए यह कंपनियां किसी तरह हमारी भी कमाई का जरिया बनें। चूंकि ई -कॉमर्स कंपनियों का भी कारोबार इंटरनेट के जरिये ही चलता है इसलिए वह भी इंटरनेट सर्विस प्रोवाईडर के साथ किसी तरह गठजोड़ रखना चाहती है। एयरटेल के जीरो प्लान को उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है। अब टेलिकॉम कंपनियां नेट न्यूटैलिटी की अवधारणा के विपरीत ओटीटी एप्लीकेशंस पर नियंत्रण कर इनसे कमाई करना चाहती हैं इसलिए वह उन्ही ओटीटी कंपनियों के कंटेट को सही तरीके से अपने इंटरनेट ग्राहकों तक पहुंचायेगा जो उनको रेवेन्यू देगा। टेलिकॉम कंपनियां इस बढते हुए क्षेत्र में अपनी कमाई का जरिया ढूंढ रही हैं।

क्या है सरकार नेट न्यूट्रैलिटी की चाबी टेलिकॉम कंपनियों के हाथ में देगी 
सरकार और ट्राई टेलीकॉम कम्पनियो के दबाव में किस तरह झुकी हुई इसका संकेत ट्राई द्वारा जारी किया गया वह कंसल्टिंग पेपर भी है जिसमे इंटरनेट उपभोक्ताओं को यह सारी मजबूरियां गिनाई गई है जिसमे ज्यादातर इस बात की और ध्यान देने को कहा गया है कि टेलिकॉम कंपनियां के नुक्सान को बचाने के लिए ऑटीटी पर नियंत्रण और टेलीकॉम कंपनियों के  पक्ष में कोई कानून बनाया जाये। क्योंकि टेलिकॉम कम्पनियां समय -समय पर ट्राई से ओ. टी.टी पर नियंत्रण करने को लेकर आवाज उठा चुकी है और ट्राई ने टेलिकॉम कम्पनियों के दबाव में अब अपने कंसल्टिंग पेपर में टेलिकॉम कम्पनियों की मजबूरी को गिनाया है। दूरसंचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने एक कमिटी का गठन किया है जो इस पर फैसला करेगी।  हालाँकि जिस तरह मोदी सरकार कॉर्पोरेट को महत्व देती आई है उसको देखते हुए यह कम  ही लगता है कि टेलिकॉम कंपनियों की मांग को पूरी तरह नजर अंदाज़ किया जायेगा।

क्या है नेट न्यूट्रैलिटी ?
भारत में नेट न्यूट्रैलिटी (इन्टरनेट निरपेक्षता)शब्द भले ही लोगों के लिए नया हो लेकिन यूरोपीय देशों में यह शब्द एक दशक पहले ही काफी चर्चित रह चुका है। इस शब्द का प्रयोग सबसे पहले कोलंबिया विश्वविद्यालय के मीडिया विधि के प्राध्यापक टिम वू द्वारा 2003 में किया गया था। इन्टरनेट निरपेक्षता का सिद्धांत है कि जब कोई भी इन्टरनेट ग्राहक किसी इन्टरनेट सर्विस प्रोवाइडर (आईएसपी) से डाटा पैक लेता हैं तो उसका अधिकार होता है कि वो नेट सर्फ करे या फिर व्हाट्सएप, स्काइप, वाइबर पर वॉयस या वीडियो कॉल करे, जिस पर एक ही दर से शुल्क लगना चाहिए। ये शुल्क इस बात पर निर्भर करता है कि उस व्यक्ति ने इस दौरान कितना डाटा इस्तेमाल किया है। उदाहरण से समझें तो आप बिजली का बिल देते हैं और बिजली इस्तेमाल करते हैं। ये बिजली आप कंप्यूटर चलाने में खर्च कर रहे हैं, फ्रिज चलाने में या टीवी चलाने में इससे बिजली कंपनी का कोई लेना-देना नहीं होता। कंपनी ये नहीं कह सकती कि अगर आप टीवी चलाएंगे तो बिजली के रेट अलग होंगे और फ्रिज चलाएंगे तो अलग। लेकिन अगर नेट न्यूट्रलिटी खत्म हुई तो इंटरनेट डेटा के मामले में ऐसा हो सकता है। और पैसा चुकाने के बाद भी खास एप्लीकेशन का ज्यादा इस्तेमाल करने पर बाध्य होंगे। मतलब 100 एमबी का डाटा आपने सर्फिंग में इस्तेमाल किया तो उसके अलग चार्ज होंगे लेकिन इतना ही डाटा आपने वॉयस या वीडियो कॉल में खर्च किया तो उसका अलग चार्ज हो सकता है। नेट निरपेक्षता का सिद्धांत कहता है आईएसपी को ग्राहकों के लिए इन्टरनेट पर उपलब्ध कंटेंट बिना किसी भेदभाव के समानता के साथ इस्तेमाल करने की अनुमति होनी चाहिए।

अन्य देशों में क्या है प्रावधान ?
दुसरे देशों में नेट की निरपेक्षता की बात करें तो अमेरिका में राष्ट्रपति बराक ओबामा के दखल के बाद फेडरल कम्युनिकेशंस कमीशन ने नेट न्यूट्रलिटी के पक्ष में नीतियां बनाईं। यानी अमेरिका में कंपनियां इंटरनेट पर चुनिंदा कंपनियों को तेज सेवा नहीं दे सकती हैं। चिली दुनिया का पहला देश है जिसने 2010 में नेट न्यूट्रेलिटी को लेकर कानून बनाया। चिली ने अपने इस टेलीकम्युनिकेशन कानून में कहा कि इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर मनमाने ढंग से किसी इंटरनेट कंटेंट, एप्लीकेशन या लीगल सर्विस को उपभोक्ता तक पहुचने में बाधित या भेदभाव पूर्ण रवैया न अपनाये। यह कानून ऑपरेटर को विशिष्ट सामग्री मनमाने ढंग से बाधित करने के लिए भी रोकता है। चिली जैसे उभरते बाजार में विकिपीडिया, ट्विटर, फेसबुक, ने मोबाइल ऑपरेटर को ग्राहकों तक इस तरह की सेवाएं अनिवार्य रूप से पहुचने की बात कही। क्योंकि वाह इसे व्यक्ति का मूलभूत आधार मानते हैं।
नीदरलैंड्स दुनिया का दूसरा और यूरोप का पहला देश है जिसने 2011 में नेट न्यूट्रेलिटी को लेकर कोई प्रावधान बनाया जब मोबाइल ऑपरेटर चाहते थे कि इंटरनेट संचार को लेकर वो अपने ग्राहकों से एक्स्ट्रा चार्ज ले। लेकिन उनके इस मांग पर रोक लगा दी गई। नतीजतन नीदरलैंड के मोबाइल ऑपरेटर्स ने अपनी डेटा चार्ज की कीमतें बढ़ा दी।
साऊथ कोरिया में 2012 में कानून बना जिसमे कहा गया की कोई भी आईएसपी अर्थात इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर बिना किसी न्यायोचित आधार के इन्टरनेट न्यूट्रेलिटी में बाधा न डाले।

नेट न्यूट्रैलिटी क्यों है जरूरी ? 
टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया (ट्राई) के चैयरमेन राहुल खुल्लर कहा था कि अभी भारत में नेट न्यूट्रैलिटी को लेकर कोई कानून या नियम नही है। इसलिए हम भारत में न्यूट्रैलिटी को लेकर एक फ्रेमवर्क चाहते हैं। उन्होंने माना था कि एयरटेल अपने नेट पैक में बदलाव कर गलत कर रहा है लेकिन हम इसे गैरकानूनी भी नहीं मान सकते है। क्योंकि भारत में नेट न्यूट्रेलिटी के लिए कोई नियम नहीं है, और इसी का लाभ उठाकर टेलिकॉम कम्पनियां नेट की निरपेक्षता का उल्लंघन करने में हिचकती नही हैं। अब भारतीय ग्राहक इसी नियम के लिए लड़ रहे हैं। आम जनता के बीच मीडिया में इसकी खबरें चलने के बाद इंटरनेट उपभोक्ता नेट न्यूट्रेलिटी यानी इंटरनेट तटस्थता के पक्ष में हैं। ओडिशा से बीजू जनता दल के सांसद तथागत सत्पथी ने ट्राई को एक खुला पत्र लिखा है जिसमें उन्होंने नेट न्यूट्रेलिटी के महत्व और भारत में इसकी जरूरत पर विस्तार से प्रकाश डाला है। सत्पथी कहते हैं, श्जब दूसरे विकसित देश इंटरनेट की सुलभता को मूलभूत मानवीय अधिकार के रूप में देख रहे हैं, तब हम भारत के लोगों से इस सुविधा को छीनने की तैयारी कर रहे हैं। शहरों और महानगरों को छोडि़ए, गांव-देहात में भी स्मार्ट फोन का बोलबाला है तब इंटरनेट पर अलग ढंग का पहरा लगाने की कोशिश हो रही है। अब सरकार क्या करेगी देखना होगा, वह कानून बनाकर या ऑटीटी को रेगुलेट करके टेलीकॉम कंपनियों के मुनाफे की चिंता करेगी या न्यूट्रैलिटी के पक्ष में खड़ी होकर उपभोक्ताओं की स्वतंत्रता को बरकरार रखेगी। भले ही टेलिकॉम कम्पनियां व्हाट्सएप,वाईबर, के फ्री कालिंग और मेसेजिंग फीचर से अपने रेवेन्यु का नुकसान बता रही हैं लेकिन इनकार इससे भी नही किया जा सकता कि भारत में अधिकतर लोगों ने इन्ही ओ.टी.टी एप्लीकेशंस के कारण इन्टरनेट का इस्तेमाल करना शुइरू किया और आज भी टेलिकॉम कम्पनियों के रेवेन्यु का एक बड़ा हिस्सा इन्ही ओ.टी.टी. के इस्तेमाल से आता है। ऑटीटी एप्लीकेशन का कहना है कि यदि टेलिकॉम कंपनियां उनसे रेवेन्यू लेती है तो इसका खामियाजा उपभोक्ताओं की स्वतंत्रता छीनने के रूप में उठाना पड़ेगा। क्योंकि वह जिस एसएमएस या वौइस् काल को फ्री में करते हैं वह उसका लाभ नही था पाएंगे।

मार्क जुकर बर्ग ने भारत में नेट न्युट्रेलिटी को लेकर क्या कहा ?
फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग ने कहा कि वह नेट न्युट्रेलिटी के पक्ष में हैं उन्होंने कहा इंटरनेट आर्थिक और सामाजिक प्रगति का सबसे ताकतवर औजार है। यह लोगों के लिए नौकरियों, ज्ञान और अवसरों के दरवाजे खोलता है। यह समाज के उन तबकों को आवाज देता है, जिनकी आवाज दबी रह जाती है, यह लोगों को स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण संसाधनों से जोड़ता है। मैं मानता हूं कि दुनिया में हर किसी को इन अवसरों को हासिल करने का अधिकार मिलना चाहिए। लेकिन दुनिया के बहुत से देशों में ऐसी सामाजिक और आर्थिक बाधाएं हैं,और अगर लोगों से उनकी ये स्वतंत्रता बरक़रार रखनी चाहिए। इंटरनेट से जुड़ने की लोगों के पास की आर्थिक हैसियत नहीं है, और कई जगहों पर इसके महत्व को लेकर जागरूकता भी काफी कम है। इस जुड़ाव के न होने की वजह से खासकर महिलाओं और गरीबों का सशक्तीकरण नहीं हो पा रहा है।